1. गांधी ब्रिटिश संस्थाओं के क्यों प्रशंसक थे? कारण बताइए।
महात्मा गांधी ब्रिटिश शासन के आलोचक अवश्य थे, लेकिन वे ब्रिटिश संस्थाओं की मूलभूत संरचना और उनके आदर्शों के प्रशंसक थे। गांधीजी ने ब्रिटेन में रहते हुए वहां की लोकतांत्रिक परंपराओं, संवैधानिक शासन, प्रेस की स्वतंत्रता, नागरिक अधिकारों और न्यायपालिका की निष्पक्षता को निकटता से देखा। उनका मानना था कि ये संस्थाएं यदि अपने मूल रूप में ईमानदारी से काम करें, तो समाज में नैतिकता, जवाबदेही और सार्वजनिक भलाई को सुनिश्चित किया जा सकता है।
ब्रिटेन की संसद व्यवस्था, कानून का शासन और सरकार की जवाबदेही जैसे तत्त्व गांधीजी को प्रभावित करते थे। उन्होंने स्वयं कहा था कि वे ब्रिटिश संस्थाओं के ‘आदर्श रूप’ में विश्वास रखते हैं, न कि उनके भारत में किए जा रहे दुरुपयोग में। उन्होंने इंग्लैंड में पढ़ाई के दौरान देखा कि नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, न्याय प्राप्त करने का अधिकार और सामाजिक समानता का अनुभव होता है। वे इन सिद्धांतों को भारत के लिए भी उपयुक्त मानते थे।
गांधीजी ने हमेशा शासन की नैतिकता पर बल दिया। वे मानते थे कि संस्थाएं तभी सफल होती हैं जब उनमें नैतिक नेतृत्व और जनता के प्रति जवाबदेही हो। वे भारतीय स्वतंत्रता को केवल विदेशी शासन से मुक्ति नहीं, बल्कि एक नैतिक और जनोन्मुख शासन की स्थापना मानते थे। उनका दृष्टिकोण यह था कि भारत को स्वतंत्र होने के बाद ब्रिटिश संस्थाओं की मूल आत्मा को अपनाकर उसे भारतीय सन्दर्भों के अनुकूल बनाना चाहिए।
अतः गांधीजी की प्रशंसा ब्रिटिश संस्थाओं के उन मूलभूत आदर्शों के प्रति थी, जो मानवाधिकार, स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित थे, न कि औपनिवेशिक शासन की नीतियों के प्रति। यह दृष्टिकोण उनके व्यावहारिक आदर्शवाद को दर्शाता है, जहां वे अच्छाई को स्वीकार करते हैं और बुराई का विरोध करते हैं, चाहे वह कहीं से भी आए।
2. गांधी ने राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए आर्थिक आधार बताए थे। टिप्पणी कीजिए।
महात्मा गांधी के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता केवल विदेशी शासन से मुक्ति नहीं थी, बल्कि वह एक समग्र प्रक्रिया थी जिसमें आर्थिक, सामाजिक और नैतिक स्वतंत्रता भी शामिल थी। उन्होंने बार-बार यह स्पष्ट किया कि जब तक भारत आत्मनिर्भर नहीं होगा, तब तक उसकी राजनीतिक स्वतंत्रता अधूरी रहेगी। उनका मानना था कि ब्रिटिश शासन का मूल आधार भारत की आर्थिक लूट है, और यदि हम आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन जाएं, तो राजनीतिक स्वतंत्रता अपने आप प्राप्त हो जाएगी।
गांधीजी ने ‘स्वदेशी’ को अपने आर्थिक चिंतन का मूल मंत्र माना। उन्होंने कहा कि जब तक भारत अपने ही उत्पादों का प्रयोग नहीं करेगा, तब तक वह विदेशी कंपनियों और पूंजीपतियों पर निर्भर रहेगा। उन्होंने चरखा और खादी को प्रतीक बनाकर स्वदेशी आंदोलन को जनांदोलन बना दिया। उनके लिए चरखा केवल एक औजार नहीं था, बल्कि यह आर्थिक स्वतंत्रता और सामाजिक समानता का प्रतीक था।
गांधीजी का मानना था कि विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार से न केवल विदेशी पूंजी को रोका जा सकता है, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी सशक्त किया जा सकता है। उनका लक्ष्य था ग्राम-आधारित अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण, जिससे हर गांव आत्मनिर्भर बन सके। उन्होंने कहा, “स्वराज तभी आएगा जब भारत के अंतिम व्यक्ति को रोज़गार, रोटी और सम्मान मिलेगा।”
गांधीजी ने स्पष्ट रूप से कहा कि “राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं जब तक वह गरीबों के जीवन में सुधार न ला सके।” उन्होंने ब्रिटिश शासन की आलोचना करते हुए कहा कि यह आर्थिक शोषण का एक साधन है, और जब तक हम अपने उत्पादन, वितरण और उपभोग की नीति को नहीं बदलते, तब तक स्वतंत्रता केवल एक दिखावा होगी।
इस प्रकार, गांधीजी ने राजनीतिक स्वतंत्रता की नींव को आर्थिक आत्मनिर्भरता में देखा। उनके लिए स्वराज का अर्थ था – आत्मनिर्भर व्यक्ति, आत्मनिर्भर गांव और आत्मनिर्भर राष्ट्र। यह विचार आज भी प्रासंगिक है, जब वैश्वीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रभाव से स्थानीय उद्योग दबाव में हैं। गांधीजी का आर्थिक चिंतन हमें यह सिखाता है कि स्वतंत्रता केवल संविधान में नहीं, बल्कि लोगों की रोटी-कपड़ा-मकान की सुरक्षा में निहित है।
3. गांधी ने औद्योगीकरण की आलोचना की। कारण बताइए।
महात्मा गांधी ने औद्योगीकरण की उस अवधारणा की आलोचना की जो पश्चिमी पूंजीवादी देशों में विकसित हुई थी। उनके अनुसार, यह प्रणाली श्रम का शोषण करती है, मशीनों को मनुष्य से अधिक महत्व देती है, और सामाजिक असमानता को जन्म देती है। गांधीजी का मानना था कि आधुनिक औद्योगीकरण, विशेषकर ब्रिटिश मॉडल, भारतीय समाज के लिए हानिकारक है क्योंकि यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नष्ट करता है और बेरोजगारी को बढ़ाता है।
गांधीजी ने औद्योगीकरण को अनैतिक इसलिए माना क्योंकि इसमें मनुष्य का स्थान मशीनें ले लेती हैं। उन्होंने कहा कि मशीनें केवल तभी उपयोगी हैं जब वे मानव श्रम का स्थान न लें, बल्कि उसे पूरक करें। उनके अनुसार, मशीनों के अत्यधिक प्रयोग से बेरोजगारी बढ़ती है, और गरीब मजदूर अपने जीवनयापन के अधिकार से वंचित हो जाते हैं।
गांधीजी का यह भी मानना था कि औद्योगीकरण से मनुष्य का जीवन भौतिकता में उलझ जाता है और उसका नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास रुक जाता है। उन्होंने औद्योगिक सभ्यता को “शैतानी सभ्यता” कहा, क्योंकि इसमें लालच, उपभोक्तावाद और प्रतिस्पर्धा का बोलबाला होता है। उनके अनुसार, यह सभ्यता न केवल प्रकृति का दोहन करती है, बल्कि मानवीय संबंधों को भी बाजार के नियमों में बांध देती है।
एक अन्य महत्वपूर्ण कारण यह था कि औद्योगीकरण से ग्रामीण भारत को नुकसान पहुंचा। अंग्रेजों के समय में मशीनों से बने वस्त्रों ने भारतीय हस्तशिल्प को समाप्त कर दिया। गांधीजी ने इसे “अर्थव्यवस्था की हत्या” बताया और खादी तथा हस्तनिर्मित वस्तुओं को बढ़ावा देने का आह्वान किया। उनके अनुसार, भारत की आत्मा गांवों में बसती है और जब तक गांव आत्मनिर्भर नहीं होंगे, तब तक भारत का वास्तविक विकास संभव नहीं।
गांधीजी की आलोचना का सार यह था कि तकनीकी प्रगति को मानव मूल्यों और नैतिकता के अधीन होना चाहिए। उन्होंने ‘छोटे पैमाने पर उद्योगों’ की वकालत की जो स्थानीय संसाधनों और श्रम पर आधारित हों, न कि बड़ी पूंजी और मशीनों पर।
इस प्रकार, गांधीजी की औद्योगीकरण की आलोचना एक समग्र दृष्टिकोण से प्रेरित थी, जिसमें आर्थिक न्याय, सामाजिक समानता, पर्यावरण संतुलन और नैतिकता प्रमुख थे।
4. गांधी की शक्ति की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।
महात्मा गांधी की शक्ति की अवधारणा पारंपरिक भौतिक बल या हिंसा आधारित सत्ता से भिन्न थी। उन्होंने शक्ति को नैतिक बल (moral power) या आत्मबल (soul-force) के रूप में देखा। उनके अनुसार, सच्ची शक्ति वह है जो प्रेम, सत्य और आत्मसंयम पर आधारित हो। गांधीजी मानते थे कि यदि कोई व्यक्ति या समुदाय अपने अंतरात्मा की आवाज़ पर चलते हुए अन्याय के विरुद्ध खड़ा होता है, तो वह शक्तिशाली है, भले ही उसके पास हथियार न हों।
गांधीजी ने इस अवधारणा को “सत्याग्रह” में रूपांतरित किया। सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ है – “सत्य की पकड़” या “सत्य के लिए आग्रह।” यह किसी अन्यायपूर्ण सत्ता के विरुद्ध अहिंसक रूप से प्रतिरोध करने की शक्ति है। उनके अनुसार, यह शक्ति सभी में होती है, चाहे वह गरीब हो या अमीर, शिक्षित हो या अशिक्षित। सत्याग्रही की शक्ति उसके नैतिक संकल्प और आत्मबल पर आधारित होती है, न कि उसके शारीरिक बल पर।
गांधीजी की शक्ति की अवधारणा आत्मनियंत्रण से जुड़ी है। वे कहते थे कि जो अपने इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है, वह दूसरों पर शासन करने वाले से अधिक शक्तिशाली है। उनके अनुसार, किसी पर नियंत्रण पाना बल से नहीं बल्कि करुणा, सहानुभूति और संवाद से संभव है।
गांधीजी का मानना था कि अहिंसा सबसे बड़ी शक्ति है। उन्होंने कहा – “अहिंसा कायरों का शस्त्र नहीं, बल्कि वीरों का धर्म है।” वे इसे सक्रिय साहस मानते थे, जिसमें अन्याय का विरोध दृढ़ता और शांति से किया जाता है। यह विचार उनके तमाम आंदोलनों में देखा गया – जैसे असहयोग आंदोलन, नमक सत्याग्रह, और भारत छोड़ो आंदोलन। इन आंदोलनों में लाखों लोग बिना हिंसा के, अन्याय के विरुद्ध खड़े हुए, जिससे साम्राज्यवादी ताकतें भी झुकने को विवश हुईं।
गांधी की शक्ति की अवधारणा में सत्य, प्रेम और सेवा केंद्रीय तत्व हैं। उनके लिए शक्ति का अर्थ दूसरों पर नियंत्रण नहीं, बल्कि स्वयं पर नियंत्रण और सत्य के लिए संघर्ष करना था। उन्होंने कहा – “शक्ति का स्रोत हिंसा नहीं, बल्कि अहिंसा है।”
इस प्रकार गांधीजी की शक्ति की अवधारणा भौतिक, राजनैतिक या सैन्य शक्ति से कहीं अधिक ऊंची और व्यापक थी। यह विचार आज भी समाजिक संघर्षों, नागरिक आंदोलनों और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में प्रयुक्त होता है।
5. संक्षिप्त टिप्पणी:
(अ) स्वशासन
गांधीजी के लिए स्वशासन (Self-rule) केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं था, बल्कि इसका गहरा नैतिक और आत्मिक अर्थ था। उन्होंने कहा – “स्वराज का अर्थ केवल विदेशी शासक से मुक्ति नहीं, बल्कि आत्म-नियंत्रण और नैतिक शासन है।” गांधीजी के स्वशासन का केंद्र हर व्यक्ति था – यदि व्यक्ति खुद पर शासन करना सीख जाए, तो समाज और राष्ट्र स्वतः संगठित और स्वशासित हो सकते हैं। उनके स्वराज में सत्ता विकेन्द्रीकृत थी – ग्राम पंचायतें, स्थानीय स्वावलंबन, और नैतिकता इसकी नींव थे। स्वशासन, गांधीजी के अनुसार, एक सतत अभ्यास है, जिसमें नागरिक अपनी जिम्मेदारियों को समझकर समाज के प्रति उत्तरदायी बनते हैं।
(ब) महिलाओं के अधिकार
महात्मा गांधी महिलाओं के अधिकारों के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने महिलाओं को केवल गृहिणी या मातृत्व तक सीमित न रखते हुए उन्हें सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में समान भागीदारी का अधिकार दिया। गांधीजी ने महिलाओं को सत्याग्रह में भाग लेने हेतु प्रेरित किया, जिससे वे स्वतंत्रता संग्राम की अग्रणी बनीं। उनके अनुसार, स्त्रियां करुणा, सहनशीलता और नैतिक शक्ति की प्रतीक हैं। वे मानते थे कि नारी शक्ति समाज को नया स्वरूप दे सकती है, बशर्ते उसे समान अवसर और सम्मान मिले। उन्होंने बाल विवाह, पर्दा प्रथा, और दहेज जैसी कुरीतियों का विरोध किया और नारी शिक्षा को अनिवार्य बताया।
6. उपनिवेशवाद के विरुद्ध गांधी के अहिंसात्मक संघर्ष पर टिप्पणी कीजिए।
गांधीजी ने उपनिवेशवाद के विरुद्ध जो संघर्ष किया, वह विश्व इतिहास में अद्वितीय है, क्योंकि उन्होंने अहिंसा को इस संघर्ष का मूल हथियार बनाया। उनका मानना था कि हिंसा से किसी भी अन्यायपूर्ण सत्ता को समाप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि उससे और अन्याय जन्म लेता है। उन्होंने सत्य, नैतिकता और जन शक्ति के बल पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती दी और भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए एक नया मार्ग दिखाया।
गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की, जहां उन्होंने रंगभेद के खिलाफ सत्याग्रह का प्रयोग किया। यह प्रयोग बाद में भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध उनके संघर्ष का आधार बना। भारत लौटने के बाद, उन्होंने असहयोग आंदोलन (1920), नमक सत्याग्रह (1930), और भारत छोड़ो आंदोलन (1942) जैसे कई जनांदोलनों का नेतृत्व किया। इन आंदोलनों की विशेषता यह थी कि लाखों भारतीयों ने बिना हथियार उठाए, ब्रिटिश शासन का बहिष्कार किया।
उनकी रणनीति में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, कर न देना, सरकारी पदों से त्यागपत्र देना, सत्याग्रह, और जेल भरो आंदोलन जैसे अहिंसक तरीके शामिल थे। गांधीजी के अनुसार, यदि जनता शांति से अन्याय के विरुद्ध एकजुट हो जाए, तो कोई भी शक्ति उसे दबा नहीं सकती।
उनका यह अहिंसक संघर्ष केवल राजनीतिक आंदोलन नहीं था, बल्कि यह एक नैतिक आंदोलन था। उन्होंने भारतीय जनता को आत्मविश्वास, आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की भावना दी। उनकी यह सोच थी कि स्वतंत्रता केवल शासन परिवर्तन नहीं, बल्कि नैतिक जागरण है।
इस प्रकार, गांधीजी का उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष इस बात का प्रमाण है कि नैतिकता और अहिंसा से भी महान राजनीतिक परिवर्तन लाए जा सकते हैं।
7. समाजवाद और साम्यवाद की गांधी ने किन आधारों पर आलोचना की है?
महात्मा गांधी समाजवाद और साम्यवाद के मूल उद्देश्य—सामाजिक समानता, निर्धनता का उन्मूलन, और संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण—से सहमत थे, परंतु उनके प्राप्ति के साधनों से उन्होंने असहमति व्यक्त की। गांधीजी ने इन विचारधाराओं की आलोचना मुख्यतः तीन आधारों पर की: हिंसा, भौतिकतावाद और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का दमन।
(1) हिंसा का समर्थन:
साम्यवाद की विचारधारा, विशेषकर मार्क्सवाद, क्रांति और वर्ग-संघर्ष के माध्यम से समाज परिवर्तन की बात करती है। गांधीजी इसके विपरीत मानते थे कि कोई भी स्थायी और नैतिक सामाजिक व्यवस्था हिंसा के माध्यम से नहीं लाई जा सकती। उनके अनुसार, साधन और साध्य दोनों पवित्र होने चाहिए। उन्होंने कहा, “विनाश के बीज बोकर निर्माण की आशा करना मूर्खता है।”
(2) भौतिकतावाद और उपभोगवाद:
गांधीजी के अनुसार, साम्यवाद और समाजवाद का मुख्य लक्ष्य उत्पादन बढ़ाना और संसाधनों का पुनर्वितरण होता है, लेकिन ये विचारधाराएं मानवीय नैतिकता, आत्मसंयम और आध्यात्मिकता को गौण मानती हैं। गांधीजी मानते थे कि वास्तविक विकास तभी संभव है जब व्यक्ति की आवश्यकताएं सीमित हों और वह आत्म-नियंत्रण से जीवन जीए।
(3) व्यक्तिगत स्वतंत्रता की उपेक्षा:
गांधीजी ने समाजवाद और साम्यवाद की आलोचना इस बात पर भी की कि वे व्यक्ति की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति के अधिकार को सीमित करते हैं। साम्यवादी व्यवस्था में राज्य सर्वोच्च होता है, और व्यक्ति उसके अधीन। गांधी के लिए, व्यक्ति समाज की इकाई है और उसकी स्वतंत्रता सर्वोपरि है। उन्होंने कहा कि कोई भी ऐसी व्यवस्था जो व्यक्ति की आत्मा को कुचल दे, वह टिकाऊ नहीं हो सकती।
गांधी का वैकल्पिक दृष्टिकोण:
गांधीजी ने “ट्रस्टीशिप” की अवधारणा दी जिसमें पूंजीपति अपने संसाधनों का उपयोग समाज के हित में करें, न कि केवल अपने लाभ के लिए। उनके अनुसार, धन, संपत्ति और साधनों पर समाज का नैतिक अधिकार है।
इस प्रकार गांधीजी की आलोचना किसी विचारधारा के लक्ष्य से नहीं, बल्कि उसके तरीकों से थी। उन्होंने एक ऐसे समाज का सपना देखा था जिसमें अहिंसा, नैतिकता और आत्मनियंत्रण से समानता लाई जाए, न कि हिंसा और क्रांति से।
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8. गांधी और सत्याग्रह पर एक संक्षिप्त निबंध लिखिए।
महात्मा गांधी का संपूर्ण राजनीतिक दर्शन ‘सत्याग्रह’ के सिद्धांत पर आधारित था। ‘सत्याग्रह’ दो शब्दों से बना है – ‘सत्य’ (सत्य) और ‘आग्रह’ (आग्रह करना), अर्थात ‘सत्य के लिए आग्रह’। गांधीजी ने इसे एक नैतिक और अहिंसात्मक संघर्ष के रूप में परिभाषित किया जो अन्याय के विरुद्ध सत्य, प्रेम और आत्मबल के माध्यम से किया जाता है।
सत्याग्रह गांधीजी की विशिष्ट खोज थी, जो उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ संघर्ष के दौरान विकसित की। भारत लौटने के बाद उन्होंने इस सिद्धांत का प्रयोग असहयोग आंदोलन, नमक सत्याग्रह, और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे कई आंदोलनों में सफलतापूर्वक किया। सत्याग्रह में न तो हिंसा थी, न ही घृणा। इसमें आत्म-बलिदान, नैतिक साहस और जनता की शक्ति निहित थी।
सत्याग्रह एक सक्रिय प्रतिरोध था, न कि निष्क्रिय असहयोग। सत्याग्रही अन्याय का विरोध करते हुए भी विरोधी के प्रति द्वेष नहीं रखता। उसका उद्देश्य विरोधी को पराजित करना नहीं, बल्कि उसे सत्य की ओर मोड़ना होता है। गांधीजी ने इसे “प्रेम की शक्ति” कहा।
सत्याग्रह का मुख्य आधार अहिंसा था। गांधीजी मानते थे कि केवल अहिंसा ही ऐसी शक्ति है जो आत्मा को सशक्त कर सकती है और समाज में स्थायी परिवर्तन ला सकती है। सत्याग्रह एक व्यक्ति से शुरू होकर जनांदोलन बन सकता है, बशर्ते उसमें नैतिक बल और सेवा की भावना हो।
गांधीजी के अनुसार, सत्याग्रह केवल राजनीतिक आंदोलन नहीं, बल्कि आत्म-शुद्धि और समाज परिवर्तन का साधन था। यह शिक्षा, श्रम, स्वदेशी और स्वावलंबन जैसे सिद्धांतों से भी जुड़ा था।
इस प्रकार, सत्याग्रह केवल एक रणनीति नहीं, बल्कि एक जीवन दृष्टि थी, जिसने भारत को स्वतंत्रता ही नहीं दिलाई, बल्कि विश्व को भी नैतिक संघर्ष का एक नया मार्ग दिखाया।
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9. संक्षिप्त टिप्पणी:
(अ) द्वंद समाधान पर गांधी:
गांधीजी ने द्वंद समाधान (Conflict Resolution) में अहिंसा और संवाद को प्राथमिकता दी। उनके अनुसार, किसी भी विवाद का स्थायी समाधान बल प्रयोग से नहीं, बल्कि सहानुभूति, सत्य और आपसी समझ से संभव है। उन्होंने ‘सत्याग्रह’ को द्वंद समाधान का सर्वोत्तम साधन माना। सत्याग्रही अपने विरोधी को शत्रु नहीं मानता, बल्कि उसे सुधारने की प्रक्रिया में भागीदार मानता है। इस दृष्टिकोण में ‘विजय’ का अर्थ विरोधी का नाश नहीं, बल्कि दोनों पक्षों की आत्मा का जागरण है।
(ब) ट्रस्टीशिप:
गांधीजी ने ट्रस्टीशिप की अवधारणा पूंजी और संपत्ति के नैतिक उपयोग हेतु दी। उनके अनुसार, अमीरों को अपनी संपत्ति का स्वामी नहीं, बल्कि ‘ट्रस्टी’ समझना चाहिए जो समाज के हित में उसका उपयोग करें। यह अवधारणा साम्यवाद और पूंजीवाद दोनों के बीच एक नैतिक मध्य मार्ग प्रस्तुत करती है। इसमें आर्थिक विषमता को हिंसा से नहीं, बल्कि नैतिक दायित्व से संतुलित किया जाता है। गांधीजी ने कहा – “संपत्ति का अधिकार तभी तक है जब तक वह समाज के हित में हो।”
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10. गांधी अहिंसा को विकास की एक पूर्वशर्त क्यों मानते थे?
महात्मा गांधी के लिए अहिंसा केवल एक नैतिक मूल्य नहीं, बल्कि समाज के समग्र और टिकाऊ विकास की आधारशिला थी। उनका मानना था कि यदि विकास हिंसा पर आधारित होगा, तो वह केवल भौतिक संपन्नता ला सकता है, लेकिन नैतिक पतन, सामाजिक विषमता और पर्यावरण विनाश को भी जन्म देगा। इसलिए उन्होंने अहिंसा को ‘विकास की पूर्वशर्त’ कहा।
गांधीजी के अनुसार, विकास का अर्थ केवल सड़कें, फैक्ट्रियां या बड़े-बड़े भवन नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर व्यक्ति, सशक्त गांव और समरस समाज होता है। उन्होंने कहा – “विकास का उद्देश्य मनुष्य को मनुष्य बनाना है, न कि केवल उपभोक्ता।” अहिंसा के बिना यह लक्ष्य संभव नहीं है, क्योंकि अहिंसा में सहयोग, सहिष्णुता और करुणा निहित होती है।
अहिंसा, सामाजिक समरसता की नींव रखती है। गांधीजी मानते थे कि हिंसक विकास मॉडल अमीरों को और अमीर बनाता है तथा गरीबों को और वंचित करता है। जबकि अहिंसक विकास समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलता है – विशेषकर आखिरी व्यक्ति को, जिसे उन्होंने ‘अंत्योदय’ कहा।
इसके अतिरिक्त, पर्यावरण संरक्षण भी गांधीजी के अहिंसक विकास दृष्टिकोण का हिस्सा था। वे मानते थे कि प्रकृति से उतना ही लो, जितनी तुम्हें आवश्यकता हो। आज के संदर्भ में यह विचार अत्यंत प्रासंगिक है जब जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और प्रदूषण जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं।
अहिंसा, केवल साधन नहीं, बल्कि विकास का मापदंड है। गांधीजी के अनुसार, यदि किसी योजना से किसी भी प्राणी को कष्ट होता है, तो वह विकास नहीं है। उन्होंने कहा – “विकास वही है जो मानवता की सेवा करे, न कि उसे कुचले।”
इस प्रकार गांधीजी ने अहिंसा को न केवल संघर्ष का माध्यम, बल्कि सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता, और पर्यावरणीय संतुलन जैसे आधुनिक विकास के मूल स्तंभों का आधार माना।
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