1. गांधी जी और कुमारप्पा की निषेध पर चिंताएं: एक परिप्रेक्ष्य
महात्मा गांधी और जे.सी. कुमारप्पा दोनों ने समाज में शराब और नशीले पदार्थों के सेवन को नैतिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण से हानिकारक माना। गांधी जी ने शराब को आत्मा और शरीर दोनों के लिए विनाशकारी बताया, जबकि कुमारप्पा ने इसे आर्थिक और सामाजिक विकास में बाधा के रूप में देखा।
गांधी जी की चिंताएं:
गांधी जी ने शराब को सामाजिक बुराई माना और इसके खिलाफ आंदोलन चलाए। उन्होंने इसे गरीबों के शोषण का साधन बताया और कहा कि शराब व्यक्ति की नैतिकता को नष्ट करती है। उनके अनुसार, शराबबंदी समाज के नैतिक उत्थान के लिए आवश्यक है।
कुमारप्पा की चिंताएं:
कुमारप्पा ने शराब को आर्थिक दृष्टिकोण से देखा। उन्होंने कहा कि शराब पर खर्च होने वाला धन गरीबों की आर्थिक स्थिति को और खराब करता है। उन्होंने इसे सामाजिक विकास में बाधा बताया और कहा कि शराबबंदी से समाज में आर्थिक सुधार हो सकता है।
निष्कर्ष:
गांधी जी और कुमारप्पा दोनों ने शराबबंदी को समाज के नैतिक और आर्थिक उत्थान के लिए आवश्यक माना। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं, जब हम समाज में नशे की बढ़ती प्रवृत्ति को देखते हैं।
2. जल संरक्षण के लिए लोगों की पहल: एक निबंध
जल जीवन का आधार है, और इसके संरक्षण के लिए लोगों की पहल अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारत में विभिन्न समुदायों और संगठनों ने जल संरक्षण के लिए कई पहलें की हैं, जो प्रेरणादायक हैं।
ग्रामीण समुदायों की पहल:
भारत के विभिन्न गांवों में लोगों ने पारंपरिक जल स्रोतों का पुनरुद्धार किया है। उदाहरण के लिए, राजस्थान के अलवर जिले में लोगों ने जोहड़ों और तालाबों का पुनर्निर्माण किया, जिससे भूजल स्तर में सुधार हुआ।
सरकारी योजनाएं:
सरकार ने भी जल संरक्षण के लिए कई योजनाएं चलाई हैं, जैसे ‘जल शक्ति अभियान’ और ‘अटल भूजल योजना’। इन योजनाओं के माध्यम से लोगों को जल संरक्षण के महत्व के बारे में जागरूक किया गया और उन्हें सक्रिय भागीदारी के लिए प्रेरित किया गया।
शहरी क्षेत्रों में पहल:
शहरी क्षेत्रों में भी लोगों ने वर्षा जल संचयन और जल पुनर्चक्रण जैसी तकनीकों को अपनाया है। इससे न केवल जल की बचत हुई है, बल्कि जल संकट से निपटने में भी मदद मिली है।
निष्कर्ष:
जल संरक्षण के लिए लोगों की पहल अत्यंत महत्वपूर्ण है। सामूहिक प्रयासों से ही हम जल संकट से निपट सकते हैं और भविष्य की पीढ़ियों के लिए जल संसाधनों को सुरक्षित रख सकते हैं।
3. अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आंदोलन: एक वर्णन
दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नीति के खिलाफ आंदोलन ने वैश्विक स्तर पर मानवाधिकारों के लिए संघर्ष का प्रतीक बन गया। यह आंदोलन मुख्य रूप से 20वीं सदी के मध्य में शुरू हुआ और 1990 के दशक में रंगभेद की समाप्ति के साथ समाप्त हुआ।
रंगभेद नीति:
दक्षिण अफ्रीका में श्वेत अल्पसंख्यक सरकार ने अश्वेत बहुसंख्यक आबादी पर कठोर कानून लागू किए, जिससे उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और राजनीतिक अधिकारों से वंचित किया गया।
आंदोलन की शुरुआत:
नेल्सन मंडेला और अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (ANC) ने रंगभेद के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत की। उन्होंने शांतिपूर्ण विरोध, नागरिक अवज्ञा और अंतरराष्ट्रीय समर्थन के माध्यम से सरकार पर दबाव बनाया।
अंतरराष्ट्रीय समर्थन:
अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भी रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाई। संयुक्त राष्ट्र ने दक्षिण अफ्रीका पर प्रतिबंध लगाए और कई देशों ने आर्थिक और सांस्कृतिक बहिष्कार किया।
रंगभेद की समाप्ति:
1990 के दशक की शुरुआत में नेल्सन मंडेला की रिहाई और लोकतांत्रिक चुनावों के आयोजन के साथ रंगभेद नीति का अंत हुआ। 1994 में मंडेला दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने।
निष्कर्ष:
दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आंदोलन ने दिखाया कि शांतिपूर्ण और संगठित प्रयासों से सामाजिक अन्याय को समाप्त किया जा सकता है। यह आंदोलन आज भी मानवाधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों के लिए प्रेरणा स्रोत है।
4. पोलैंड में अहिंसक एकजुटता आंदोलन: एक व्याख्या
पोलैंड में 1980 के दशक में ‘सॉलिडेरिटी’ (Solidarity) नामक अहिंसक आंदोलन ने कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ संघर्ष किया और देश में लोकतंत्र की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
आंदोलन की शुरुआत:
1980 में ग्दांस्क के लेनिन शिपयार्ड में मजदूरों ने वेतन वृद्धि और काम की बेहतर परिस्थितियों की मांग को लेकर हड़ताल की। लेच वालेसा के नेतृत्व में यह आंदोलन ‘सॉलिडेरिटी’ नामक ट्रेड यूनियन में परिवर्तित हुआ।
अहिंसक रणनीतियां:
सॉलिडेरिटी ने शांतिपूर्ण विरोध, हड़तालों और वार्ताओं के माध्यम से सरकार पर दबाव बनाया। उन्होंने जनता को संगठित किया और अंतरराष्ट्रीय समर्थन प्राप्त किया।
सरकारी प्रतिक्रिया:
सरकार ने आंदोलन को दबाने के लिए मार्शल लॉ लागू किया और नेताओं को गिरफ्तार किया। लेकिन आंदोलन की लोकप्रियता और अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण सरकार को अंततः वार्ता के लिए मजबूर होना पड़ा।
परिणाम:
1989 में पोलैंड में पहले स्वतंत्र चुनाव हुए, जिसमें सॉलिडेरिटी ने भारी जीत हासिल की। इसके बाद देश में लोकतंत्र की स्थापना हुई और कम्युनिस्ट शासन का अंत हुआ।
निष्कर्ष:
पोलैंड का सॉलिडेरिटी आंदोलन अहिंसक संघर्ष का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसने दिखाया कि शांतिपूर्ण और संगठित प्रयासों से राजनीतिक परिवर्तन संभव है।
5. भारत में नए किसान आंदोलन का विवाद: एक व्याख्या
भारत में 2020-21 के दौरान किसानों ने तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ व्यापक आंदोलन किया, जिसने देशभर में राजनीतिक और सामाजिक बहस को जन्म दिया।
कृषि कानूनों का परिचय:
सरकार ने तीन नए कृषि कानून पारित किए, जिनका उद्देश्य कृषि क्षेत्र में सुधार और निजी निवेश को बढ़ावा देना था। लेकिन किसानों को आशंका थी कि इससे न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) प्रणाली समाप्त हो जाएगी और वे निजी कंपनियों के हाथों शोषित होंगे।
आंदोलन की शुरुआत:
पंजाब और हरियाणा के किसानों ने इन कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू किया, जो जल्द ही देशभर में फैल गया। दिल्ली की सीमाओं पर किसानों ने महीनों तक धरना दिया।
सरकारी प्रतिक्रिया:
सरकार ने किसानों से कई दौर की वार्ता की और कानूनों में संशोधन की पेशकश की, लेकिन किसानों ने कानूनों की पूर्ण वापसी की मांग की।
न्यायिक और सामाजिक दृष्टिकोण:
इस आंदोलन ने न्यायिक प्रणाली, मीडिया की भूमिका और नागरिक अधिकारों पर भी सवाल उठाए। आंदोलन में महिलाओं, युवाओं और विभिन्न सामाजिक समूहों की भागीदारी उल्लेखनीय रही।
निष्कर्ष:
भारत का नया किसान आंदोलन लोकतंत्र में नागरिकों की भागीदारी और शांतिपूर्ण विरोध का एक उदाहरण है। इसने कृषि नीति, सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया।
6. भारत में लोकतांत्रिक शासन की तीन प्रमुख विशेषताएं और उनकी सफलता
भारत का लोकतंत्र विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जिसकी सफलता इसकी विविधता और जटिलताओं के बावजूद उल्लेखनीय है। इसकी तीन प्रमुख विशेषताएं हैं:
1. सार्वभौमिक मताधिकार:
भारत में सभी वयस्क नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मतदान का अधिकार है। यह लोकतंत्र की नींव है और नागरिकों को शासन में भागीदारी का अवसर प्रदान करता है।
2. स्वतंत्र न्यायपालिका:
भारत की न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष है, जो संविधान की रक्षा करती है और नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करती है।
3. संघीय ढांचा:
भारत एक संघीय गणराज्य है, जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन है। यह विविधता वाले देश में शासन को प्रभावी बनाता है।
सफलता का मूल्यांकन:
इन विशेषताओं के कारण भारत में लोकतंत्र मजबूत हुआ है। हालांकि, चुनौतियां भी हैं, जैसे भ्रष्टाचार, सामाजिक असमानता और राजनीतिक ध्रुवीकरण। लेकिन नागरिकों की जागरूकता और संस्थाओं की मजबूती से लोकतंत्र की नींव मजबूत बनी हुई है।
7. भारत के शांतिपूर्ण आंदोलनों पर गांधीवादी विचारों का प्रभाव
महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के सिद्धांतों ने भारत में स्वतंत्रता संग्राम के बाद भी कई सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों को प्रेरित किया है।
पर्यावरण आंदोलन:
चिपको आंदोलन और नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे पर्यावरणीय आंदोलनों ने गांधीजी के अहिंसक प्रतिरोध और जनभागीदारी के सिद्धांतों को अपनाया।
सामाजिक न्याय आंदोलन:
दलित अधिकारों, महिला सशक्तिकरण और शिक्षा के क्षेत्र में हुए आंदोलनों ने भी गांधीवादी विचारों से प्रेरणा ली है।
राजनीतिक आंदोलन:
जेपी आंदोलन और अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन गांधीजी के सिद्धांतों पर आधारित थे, जिन्होंने शांतिपूर्ण विरोध और नैतिकता पर जोर दिया।
निष्कर्ष:
गांधीजी के विचार आज भी भारत में सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। उनके सिद्धांतों ने शांतिपूर्ण और प्रभावी आंदोलनों को जन्म दिया है।
8. प्रदूषण संकट: गंभीरता, रूप और प्रभाव
प्रदूषण आज वैश्विक संकट बन चुका है, जो मानव स्वास्थ्य, पर्यावरण और आर्थिक विकास को प्रभावित कर रहा है।
प्रमुख रूप:
- वायु प्रदूषण: वाहनों, उद्योगों और पराली जलाने से उत्पन्न होता है।
- जल प्रदूषण: औद्योगिक अपशिष्ट, कृषि रसायन और घरेलू कच
गांधी के बाद के अहिंसक आंदोलनों की प्रमुख विशेषताएं और प्रभाव
महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अहिंसा और सत्याग्रह को प्रभावी हथियार के रूप में अपनाया। गांधी के निधन के बाद भी उनके सिद्धांतों ने भारत और विश्व भर में कई सामाजिक, राजनीतिक और पर्यावरणीय आंदोलनों को प्रेरित किया। इन आंदोलनों ने अहिंसा के सिद्धांतों को विभिन्न संदर्भों में अपनाया और सामाजिक परिवर्तन की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
भारत में गांधी के बाद के प्रमुख अहिंसक आंदोलन
1. भूदान आंदोलन (1951):
आचार्य विनोबा भावे द्वारा शुरू किया गया यह आंदोलन जमींदारों से स्वेच्छा से भूमि दान कराने का प्रयास था, ताकि भूमिहीन किसानों को भूमि मिल सके। यह आंदोलन गांधी के “ट्रस्टीशिप” सिद्धांत पर आधारित था, जिसमें संपत्ति के नैतिक उपयोग पर जोर दिया गया।
2. चिपको आंदोलन (1973):
उत्तराखंड के ग्रामीणों, विशेषकर महिलाओं, द्वारा शुरू किया गया यह आंदोलन वनों की कटाई के विरोध में था। उन्होंने पेड़ों से चिपककर वनों की रक्षा की। यह आंदोलन पर्यावरण संरक्षण और महिलाओं की भागीदारी का प्रतीक बन गया।
3. नर्मदा बचाओ आंदोलन (1985):
बड़े बांधों के निर्माण से विस्थापित होने वाले लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए मेधा पाटकर के नेतृत्व में यह आंदोलन शुरू हुआ। यह आंदोलन विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
4. सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन (1974):
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में यह आंदोलन भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और सामाजिक अन्याय के खिलाफ था। यह आंदोलन लोकतंत्र की रक्षा और सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।
वैश्विक स्तर पर गांधी के अहिंसक सिद्धांतों का प्रभाव
1. अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (1950-60):
मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने गांधी के अहिंसक प्रतिरोध के सिद्धांतों को अपनाकर अमेरिका में नस्लीय भेदभाव के खिलाफ आंदोलन चलाया। इसके परिणामस्वरूप नागरिक अधिकार अधिनियम (1964) और मतदान अधिकार अधिनियम (1965) पारित हुए।
2. दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आंदोलन:
नेल्सन मंडेला ने गांधी के सिद्धांतों से प्रेरणा लेकर रंगभेद नीति के खिलाफ संघर्ष किया। यह आंदोलन अंततः रंगभेद की समाप्ति और लोकतंत्र की स्थापना में सफल रहा।
3. पोलैंड में सॉलिडेरिटी आंदोलन (1980):
लेच वालेसा के नेतृत्व में यह आंदोलन कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ था। अहिंसक विरोध और हड़तालों के माध्यम से यह आंदोलन पोलैंड में लोकतंत्र की स्थापना में सहायक बना।
गांधी के सिद्धांतों की समकालीन प्रासंगिकता
गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांत आज भी प्रासंगिक हैं:
- पर्यावरणीय संकट: जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय संकटों के समाधान में अहिंसक आंदोलन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
- सामाजिक असमानता: जाति, लिंग और आर्थिक असमानता के खिलाफ संघर्ष में गांधी के सिद्धांत मार्गदर्शक हो सकते हैं।
- राजनीतिक अस्थिरता: लोकतंत्र की रक्षा और नागरिक अधिकारों की स्थापना के लिए अहिंसक प्रतिरोध प्रभावी साधन हो सकते हैं।
निष्कर्ष:
गांधी के बाद के अहिंसक आंदोलन यह सिद्ध करते हैं कि अहिंसा केवल एक नैतिक सिद्धांत नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का प्रभावी उपकरण है। इन आंदोलनों ने न केवल तत्कालीन समस्याओं का समाधान किया, बल्कि भविष्य के लिए भी एक मार्गदर्शन प्रदान किया। गांधी के सिद्धांतों की यह यात्रा आज भी जारी है, जो हमें शांतिपूर्ण और न्यायपूर्ण समाज की ओर अग्रसर करती है।
प्रश्न 9: सॉलिडेरिटी आंदोलन ने पोलैंड में क्या बदलाव किया?
उत्तर:
सॉलिडेरिटी (Solidarity या ‘Solidarnosc’) आंदोलन पोलैंड में 1980 के दशक का एक ऐतिहासिक और अहिंसक जनांदोलन था, जिसने न केवल पोलैंड में साम्यवादी शासन को चुनौती दी, बल्कि समूचे पूर्वी यूरोप में लोकतांत्रिक बदलाव की नींव रखी। यह आंदोलन मुख्यतः लेच वालेसा (Lech Wałęsa) के नेतृत्व में एक मज़दूर यूनियन से शुरू हुआ, लेकिन जल्दी ही यह राष्ट्रीय स्तर का राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन बन गया।
आंदोलन की पृष्ठभूमि:
पोलैंड 1945 से ही सोवियत प्रभाव वाले साम्यवादी शासन के अधीन था। आर्थिक बदहाली, सेंसरशिप, मज़दूर शोषण और नागरिक स्वतंत्रताओं के हनन से जनता असंतुष्ट थी। इसी संदर्भ में 1980 में ग्दांस्क (Gdansk) के शिपयार्ड्स में हड़ताल शुरू हुई, जो जल्द ही देशव्यापी आंदोलन बन गई।
मुख्य मांगें:
- स्वतंत्र मज़दूर यूनियन की स्थापना
- प्रेस की स्वतंत्रता
- राजनीतिक बंदियों की रिहाई
- बेहतर वेतन और कार्य की स्थितियाँ
- शासन में सहभागिता
बदलाव जो सॉलिडेरिटी आंदोलन ने लाए:
- राजनीतिक जागरूकता में वृद्धि:
आंदोलन ने पोलिश जनता में राजनीतिक जागरूकता और सहभागिता को बढ़ाया। पहली बार लोगों ने संगठित होकर अहिंसक ढंग से सरकार को चुनौती दी। - सत्तारूढ़ शासन की वैधता पर प्रश्न:
सॉलिडेरिटी आंदोलन ने कम्युनिस्ट शासन की वैधता को नैतिक रूप से कमजोर किया। इसकी लोकप्रियता ने यह स्पष्ट कर दिया कि सरकार जनता का विश्वास खो चुकी है। - 1989 की गोलमेज वार्ता:
सॉलिडेरिटी नेताओं और शासन के बीच वार्ता हुई, जिसके परिणामस्वरूप 1989 में आंशिक रूप से स्वतंत्र चुनाव हुए। यह पूर्वी यूरोप में लोकतंत्र की ओर पहला महत्वपूर्ण कदम था। - लोकतांत्रिक चुनाव और सत्ता परिवर्तन:
1989 के चुनावों में सॉलिडेरिटी समर्थित उम्मीदवारों की भारी जीत हुई और पोलैंड में पहली बार गैर-साम्यवादी प्रधानमंत्री बना। लेच वालेसा बाद में पोलैंड के राष्ट्रपति भी बने। - पूर्वी यूरोप में परिवर्तन की चिंगारी:
यह आंदोलन हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, रोमानिया जैसे देशों में भी लोकतांत्रिक आंदोलनों की प्रेरणा बना और अंततः 1991 में सोवियत संघ के विघटन का मार्ग प्रशस्त हुआ।
निष्कर्ष:
सॉलिडेरिटी आंदोलन ने यह सिद्ध कर दिया कि अहिंसक संगठित जनचेतना, सामूहिक नेतृत्व और स्पष्ट मांगों के साथ किसी भी दमनकारी शासन को चुनौती दी जा सकती है। यह आंदोलन गांधीवादी विचारों की अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता और प्रभावशीलता का एक ऐतिहासिक उदाहरण है।
प्रश्न 10: भारत में चलाए गए गांधी से प्रेरित पांच आंदोलन के नाम बताइए और उनका संक्षिप्त में व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
गांधी के सिद्धांतों – विशेष रूप से सत्याग्रह, अहिंसा और स्वदेशी – ने स्वतंत्रता के बाद भी भारत में कई सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय आंदोलनों को प्रेरित किया। यहां पांच प्रमुख गांधीवादी आंदोलनों का वर्णन है:
- भूदान आंदोलन (1951)
आचार्य विनोबा भावे द्वारा शुरू किया गया यह आंदोलन भूमिहीन किसानों को स्वेच्छा से भूमि दिलाने के उद्देश्य से शुरू हुआ। यह गांधी की ट्रस्टीशिप की अवधारणा पर आधारित था। - चिपको आंदोलन (1973)
उत्तराखंड के गांवों में पेड़ों की कटाई के विरोध में महिलाओं द्वारा पेड़ों से चिपकने की प्रक्रिया से शुरू हुआ यह आंदोलन वन संरक्षण के लिए अहिंसक प्रतिरोध का उदाहरण बना। - नर्मदा बचाओ आंदोलन (1985)
मेधा पाटकर के नेतृत्व में, यह आंदोलन नर्मदा घाटी में बांधों के निर्माण से प्रभावित आदिवासियों और किसानों के पुनर्वास और पर्यावरणीय चिंताओं के समर्थन में था। - लोकनायक जयप्रकाश नारायण का सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन (1974)
बिहार में भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और शासन की विफलताओं के विरुद्ध चला यह आंदोलन गांधी के सर्वोदय के सिद्धांतों से प्रेरित था। आंदोलन ने 1975 में आपातकाल की घोषणा को भी चुनौती दी। - टेहरी बचाओ आंदोलन (1980 के दशक में)
सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में चला यह आंदोलन पर्यावरण संरक्षण के लिए था। यह गांधी के “प्रकृति के साथ तादात्म्य” की विचारधारा को दर्शाता है।
निष्कर्ष:
ये सभी आंदोलन गांधी के सिद्धांतों से अनुप्राणित थे और भारतीय लोकतंत्र को अधिक मानवीय, न्यायपूर्ण और टिकाऊ बनाने की दिशा में प्रयासरत रहे।
प्रश्न 11: भारत में सामाजिक क्रांति की संभावनाओं और सीमाओं पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
भारत में सामाजिक क्रांति की अवधारणा सामाजिक असमानताओं को मिटाने, जाति-भेद, लिंग-भेद, आर्थिक विषमता को दूर करने और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना से जुड़ी हुई है। हालांकि गांधी के नेतृत्व में स्वराज और समाज सुधार के लिए प्रयास किए गए, स्वतंत्र भारत में सामाजिक क्रांति अब भी अधूरी प्रतीत होती है।
संभावनाएँ:
- संविधानिक समर्थन:
भारतीय संविधान सामाजिक न्याय, समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों को समर्थन देता है, जिससे समाज सुधार की संरचनात्मक नींव बनी है। - शिक्षा का प्रसार:
बढ़ती साक्षरता और शिक्षा से सामाजिक चेतना में वृद्धि हुई है, जिससे बदलाव की मांग बढ़ी है। - सशक्तिकरण की नीतियाँ:
आरक्षण, महिला सशक्तिकरण, सामाजिक न्याय योजनाएँ जैसे प्रयास सामाजिक बदलाव को गति दे रहे हैं। - सिविल सोसाइटी और मीडिया:
मीडिया, सोशल मीडिया और एनजीओ अब सामाजिक मुद्दों को उठाकर जनता को जागरूक बना रहे हैं।
सीमाएँ:
- जातीय और धार्मिक विभाजन:
आज भी जाति व्यवस्था और साम्प्रदायिकता समाज को बाँटे हुए हैं, जिससे व्यापक एकता और बदलाव में बाधा आती है। - आर्थिक विषमता:
आर्थिक असमानता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है, जो सामाजिक समरसता को कमज़ोर करती है। - राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी:
कई बार सामाजिक सुधार के लिए राजनीतिक नेतृत्व में प्रतिबद्धता का अभाव देखा गया है। - सांस्कृतिक रूढ़िवाद:
परंपरावादी सोच और सामाजिक पूर्वग्रह अब भी गहरे हैं, जो सामाजिक क्रांति को बाधित करते हैं।
निष्कर्ष:
भारत में सामाजिक क्रांति की दिशा में प्रयास जारी हैं, किंतु यह एक सतत प्रक्रिया है। गांधी के विचारों को आधार बनाकर यदि शिक्षा, संवैधानिक समर्थन, जनचेतना और राजनीतिक इच्छाशक्ति को समन्वयित किया जाए, तो यह परिवर्तन व्यापक और स्थायी हो सकता है।
प्रश्न 12: समकालीन भारत में मद्य नीतियों और सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों की प्रमुख चिंताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत में मद्य नीति (Liquor Policy) और सार्वजनिक स्वास्थ्य का आपसी संबंध गहरा है। शराब के बढ़ते उपयोग ने समाज के अनेक वर्गों को प्रभावित किया है—विशेषकर गरीब, महिलाएं, और युवा। महात्मा गांधी शराब को सामाजिक बुराई मानते थे और उन्होंने इसके पूर्ण निषेध का समर्थन किया था। आज के समय में जब सार्वजनिक स्वास्थ्य पर गंभीर संकट हैं, तब मद्य नीति को एक महत्वपूर्ण सामाजिक विषय के रूप में देखा जाना चाहिए।
मुख्य चिंताएँ:
- स्वास्थ्य पर प्रभाव:
शराब के अत्यधिक सेवन से लीवर सिरोसिस, कैंसर, उच्च रक्तचाप, मानसिक रोग जैसे गंभीर बीमारियाँ होती हैं। WHO के अनुसार, भारत में शराबजनित बीमारियों के मामलों में वृद्धि दर्ज की गई है। - घरेलू हिंसा और सामाजिक विघटन:
शराब सेवन के कारण घरेलू हिंसा, स्त्री उत्पीड़न और पारिवारिक टूटन की घटनाएं बढ़ रही हैं। अनेक महिलाएं शराबबंदी की मांग करती रही हैं। - आर्थिक बोझ:
गरीब तबके की आय का बड़ा हिस्सा शराब पर खर्च हो जाता है, जिससे उनका जीवन स्तर और बिगड़ता है। साथ ही, शराब से उत्पन्न बीमारियों पर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को भारी वित्तीय बोझ उठाना पड़ता है। - राजस्व और नैतिक द्वंद्व:
शराब पर राज्य सरकारों को भारी कर राजस्व प्राप्त होता है। लेकिन यह राजस्व एक नैतिक संकट उत्पन्न करता है – क्या सरकारें सार्वजनिक भलाई की कीमत पर आय जुटा सकती हैं? - युवा और नशा:
युवा वर्ग में शराब और नशे की लत समाज के भविष्य पर गंभीर असर डाल रही है। कॉलेजों और शहरी क्षेत्रों में शराब का चलन बढ़ता जा रहा है।
मद्य नीति से जुड़ी समस्याएं:
- नीति में स्पष्टता की कमी: केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियों में असमानता।
- शराबबंदी की असफलता: जैसे बिहार, गुजरात में शराबबंदी के बावजूद अवैध शराब कारोबार और मौतों की घटनाएं।
- शिक्षा और जन-जागरूकता का अभाव।
समाधान और गांधीवादी दृष्टिकोण:
- शिक्षा और नैतिक मूल्यों पर बल देना: गांधी का मानना था कि व्यक्ति के अंदर आत्मानुशासन और संयम विकसित हो, जिससे उसे शराब की आवश्यकता ही न महसूस हो।
- स्वेच्छिक नशाबंदी आंदोलन: गांधी शराब के खिलाफ जन-जागरण और जन-आंदोलन का समर्थन करते थे, न कि केवल कानूनी रोक का।
- महिलाओं की भागीदारी: अनेक अहिंसक आंदोलनों की तरह, शराबबंदी आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका प्रभावशाली हो सकती है।
- पुनर्वास केंद्रों का निर्माण: नशे से पीड़ित लोगों के लिए पुनर्वास केंद्रों की आवश्यकता है, जहां उन्हें मानसिक और सामाजिक समर्थन मिल सके।
निष्कर्ष:
भारत में मद्य नीति और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर गांधीवादी दृष्टिकोण आज भी प्रासंगिक है। न केवल कानून से, बल्कि जन-जागरण, नैतिक शिक्षा और सामुदायिक भागीदारी से ही इस समस्या का टिकाऊ समाधान संभव है।
प्रश्न 13: टेहरी बचाओ आंदोलन और हिमालय क्षेत्र को बचाने के लिए इसके अहिंसक प्रयासों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
टेहरी बचाओ आंदोलन (Tehri Bachao Andolan) भारत में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण अहिंसक संघर्ष था, जो गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित था। यह आंदोलन टेहरी बांध के निर्माण के खिलाफ था, जो उत्तराखंड के टेहरी जिले में भागीरथी नदी पर प्रस्तावित था। आंदोलन का नेतृत्व पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने किया, जो गांधी के अनुयायी और चिपको आंदोलन के प्रमुख चेहरे रहे हैं।
आंदोलन की पृष्ठभूमि:
टेहरी बांध परियोजना 2400 मेगावाट बिजली उत्पादन, सिंचाई और जलापूर्ति के लिए बनाई गई थी, लेकिन इससे लगभग 100 गांवों और टेहरी शहर का विस्थापन होना तय था। इसके अलावा यह भूकंप संवेदी क्षेत्र में था, जिससे पर्यावरण और मानव जीवन पर गंभीर खतरा था।
मुख्य चिंताएँ:
- पर्यावरणीय संकट:
- हिमालय जैसे संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र में बांध निर्माण से भूस्खलन, जल स्रोतों का क्षरण और पारिस्थितिकी असंतुलन की आशंका थी।
- विस्थापन और मानवाधिकार:
- हजारों लोग अपने पुश्तैनी घरों से विस्थापित हुए, जिनकी पुनर्वास नीति में गंभीर खामियाँ थीं।
- सांस्कृतिक क्षति:
- टेहरी एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक नगर था, जिसकी जलमग्नता से स्थानीय पहचान का ह्रास हुआ।
गांधीवादी संघर्ष के स्वरूप:
- अहिंसक प्रतिरोध:
- सुंदरलाल बहुगुणा ने सत्याग्रह, आमरण अनशन और पदयात्राओं के माध्यम से आंदोलन को नेतृत्व दिया।
- जनचेतना और संवाद:
- ग्रामीणों और युवाओं को शिक्षित कर पर्यावरण और विस्थापन के प्रभावों पर जागरूकता फैलाई गई।
- राजनीतिक संवाद:
- बहुगुणा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक अपनी बात पहुंचाई। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से बातचीत के बाद एक समिति बनी, लेकिन निर्माण जारी रहा।
- संयुक्त राष्ट्र तक आवाज:
- आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी समर्थन मिला, जिससे यह वैश्विक पर्यावरण न्याय के विमर्श में शामिल हुआ।
परिणाम:
हालांकि टेहरी बांध अंततः बनकर तैयार हुआ (2006), लेकिन यह आंदोलन भारत में पर्यावरण न्याय और विकास बनाम पर्यावरण के मुद्दे पर विमर्श को मुखर करने वाला बना। इससे नर्मदा बचाओ आंदोलन सहित अन्य आंदोलनों को भी प्रेरणा मिली।
निष्कर्ष:
टेहरी बचाओ आंदोलन गांधी के विचारों की सजीव अभिव्यक्ति था—जहाँ अहिंसा, सत्याग्रह, और जनभागीदारी के ज़रिए पर्यावरण संरक्षण और मानवीय गरिमा के लिए संघर्ष किया गया। यह आंदोलन यह दिखाता है कि आधुनिक विकास के मॉडल में भी गांधीवादी दृष्टिकोण कितने प्रासंगिक और प्रेरणादायी हैं।
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