19. सांप्रदायिकता क्या है? भारत में यह किस प्रकार कार्य करती है
सांप्रदायिकता एक ऐसी विचारधारा है जिसमें धार्मिक पहचान को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हितों के आधार पर दूसरों के विरुद्ध खड़ा किया जाता है। यह विभाजनकारी सोच व्यक्ति की प्राथमिक पहचान को केवल उसके धर्म से जोड़ती है और अन्य समुदायों को शत्रु के रूप में प्रस्तुत करती है।
भारत में सांप्रदायिकता का इतिहास औपनिवेशिक काल से जुड़ा हुआ है, जब ब्रिटिश शासकों ने ‘विभाजित करो और राज करो’ की नीति अपनाई। उन्होंने जनगणनाओं और अलग निर्वाचन क्षेत्रों के माध्यम से हिंदू-मुस्लिम खाई को बढ़ाया। स्वतंत्रता के बाद, यद्यपि संविधान ने धर्मनिरपेक्षता को अंगीकार किया, सांप्रदायिकता की जड़ें समाज में बनी रहीं।
भारत में सांप्रदायिकता कई रूपों में कार्य करती है:
- राजनीतिक सांप्रदायिकता: राजनीतिक दल धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल कर वोट बैंक तैयार करते हैं।
- सांप्रदायिक दंगे: जैसे 1984 सिख विरोधी दंगे, 2002 गुजरात दंगे आदि, जो समाज को गहराई तक विभाजित करते हैं।
- सांस्कृतिक सांप्रदायिकता: इतिहास और परंपराओं की सांप्रदायिक व्याख्या द्वारा एक धर्म को श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास।
सांप्रदायिकता का समाज पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। यह सामाजिक सौहार्द्र को खत्म करती है, अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना पैदा करती है, और लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर करती है। इसका मुकाबला शिक्षा, समावेशी नीतियों और धर्मनिरपेक्ष राजनीति द्वारा ही किया जा सकता है।
20. संक्षिप्त टिप्पणियां (प्रत्येक 150–200 शब्दों में)
क) महिला सशक्तिकरण
महिला सशक्तिकरण का तात्पर्य महिलाओं को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से समान अधिकार और अवसर प्रदान करने से है। भारत में महिला आंदोलन जैसे चिपको आंदोलन, गुलाबी गैंग, ‘मी टू’ अभियान आदि ने महिलाओं की आवाज़ बुलंद की। सरकार ने भी ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, महिलाओं के लिए आरक्षण और सुरक्षा कानूनों के माध्यम से महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा दिया। हालांकि अभी भी लैंगिक भेदभाव, घरेलू हिंसा और कार्यस्थलों पर असमानता जैसी चुनौतियाँ बनी हुई हैं।
ख) राज्यवाद के आंदोलन
राज्यवाद के आंदोलन उन आंदोलनों को कहते हैं जो क्षेत्रीय पहचान, संस्कृति और स्वायत्तता की मांग को लेकर होते हैं। भारत में तेलंगाना, झारखंड, उत्तराखंड जैसे राज्य राज्यवाद आंदोलनों के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आए। ये आंदोलन मुख्यतः उपेक्षा, असमान विकास और क्षेत्रीय अस्मिता के कारण उभरते हैं। हालांकि कई बार ये आंदोलन विघटनकारी भी हो सकते हैं, परंतु लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत इन्हें शांतिपूर्वक हल किया जा सकता है।
21. सामाजिक आंदोलन के अध्ययन के उदारवादी और मार्क्सवादी दृष्टिकोण की व्याख्या कीजिए
सामाजिक आंदोलनों के अध्ययन हेतु उदारवादी और मार्क्सवादी दृष्टिकोण दो प्रमुख सिद्धांतात्मक ढांचे प्रदान करते हैं।
उदारवादी दृष्टिकोण:
यह दृष्टिकोण सामाजिक आंदोलनों को संस्थाओं के भीतर परिवर्तन लाने का एक माध्यम मानता है। इसके अनुसार आंदोलन लोकतंत्र के भीतर रहते हुए सुधार की मांग करते हैं। यह आंदोलन के शांतिपूर्ण, गैर-हिंसक और संस्थागत स्वरूप को महत्व देता है। उदाहरण के लिए, महिला अधिकार आंदोलन और पर्यावरण आंदोलन को इस दृष्टिकोण से समझा जा सकता है।
मार्क्सवादी दृष्टिकोण:
मार्क्सवादी चिंतन के अनुसार, सामाजिक आंदोलन वर्ग संघर्ष की अभिव्यक्ति होते हैं। यह दृष्टिकोण सामाजिक असमानताओं को समझने के लिए आर्थिक शोषण और पूंजीवादी संरचना को आधार बनाता है। मार्क्सवादी विश्लेषण में सामाजिक आंदोलन का उद्देश्य सत्ता संरचना को चुनौती देना होता है, न कि केवल सुधार करना। दलित आंदोलन, श्रमिक आंदोलन आदि इस फ्रेमवर्क से विश्लेषित किए जा सकते हैं।
सारांश: उदारवादी दृष्टिकोण आंदोलन को लोकतंत्र के भीतर सुधार का साधन मानता है जबकि मार्क्सवादी दृष्टिकोण आंदोलन को क्रांतिकारी परिवर्तन का उपकरण समझता है।
22. सामाजिक आंदोलन पर सूचना तकनीकी और वैश्वीकरण के प्रभाव का मूल्यांकन कीजिए
सूचना तकनीकी और वैश्वीकरण ने सामाजिक आंदोलनों की संरचना, कार्यप्रणाली और प्रभावशीलता को गहराई से प्रभावित किया है।
सूचना तकनीकी का प्रभाव:
- संचार: सोशल मीडिया और मोबाइल तकनीक ने आंदोलनों को तीव्र गति से फैलने का माध्यम दिया। जैसे, ‘#MeToo’ और ‘Shaheen Bagh’ आंदोलन को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म ने वैश्विक पहचान दिलाई।
- संगठन: विकेंद्रीकृत नेटवर्क के माध्यम से लोग बिना केंद्रीय नेतृत्व के भी संगठित हो पा रहे हैं।
- जनसंपर्क: आंदोलनों के संदेश को मुख्यधारा मीडिया के बिना भी जनता तक पहुँचाना संभव हुआ है।
वैश्वीकरण का प्रभाव:
- एक ओर वैश्वीकरण ने उपभोक्तावादी संस्कृति और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ आंदोलन को जन्म दिया, जैसे WTO-विरोधी आंदोलन।
- दूसरी ओर, इसने आंदोलनों के वैश्विक नेटवर्किंग को भी बढ़ावा दिया – जैसे, पर्यावरण आंदोलनों का अंतरराष्ट्रीय समन्वय।
हालांकि, इन तकनीकों का दुरुपयोग भी हुआ है – जैसे, फेक न्यूज़ और अफवाहों के माध्यम से आंदोलनों को बदनाम करना। फिर भी, कुल मिलाकर सूचना तकनीकी और वैश्वीकरण ने आंदोलनों को नई ऊर्जा और व्यापक मंच प्रदान किया है।
23. भारतीय राजनीति में दलितों की भूमिका का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए
दलित समुदाय की भारतीय राजनीति में भूमिका स्वतंत्रता के बाद से धीरे-धीरे विकसित हुई है। संविधान ने उन्हें समानता, आरक्षण और राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया। डॉ. अंबेडकर जैसे नेताओं ने दलितों की राजनीतिक चेतना को जागृत किया।
राजनीतिक दलों ने दलित वोट बैंक की अहमियत को समझा और उन्हें जोड़ने की कोशिश की। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने दलितों को एकजुट कर राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी हासिल की। ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक दलित प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ी है।
हालांकि आलोचकों का कहना है कि कई बार दलित प्रतिनिधि केवल प्रतीकात्मक भूमिका निभाते हैं। वे स्वतंत्र रूप से नीतियों को प्रभावित नहीं कर पाते। इसके अतिरिक्त, दलित मुद्दे केवल चुनावी दौर में ही चर्चा में आते हैं, उसके बाद उपेक्षित रह जाते हैं।
फिर भी, दलित राजनीति ने सामाजिक न्याय की अवधारणा को मजबूती दी है और दलित समुदाय को आत्मविश्वास से भर दिया है। अब आवश्यकता है कि दलित प्रतिनिधि केवल संख्या नहीं, बल्कि नीतिगत निर्णयों में भी प्रभावी भागीदारी करें।
24. भारत के क्षेत्रीय आंदोलन को उचित उदाहरण के साथ समझाइए
भारत में क्षेत्रीय आंदोलन वे आंदोलन हैं जो किसी विशेष क्षेत्र की सांस्कृतिक, भाषाई, आर्थिक या राजनीतिक मांगों को लेकर होते हैं। इन आंदोलनों का लक्ष्य प्रायः स्वायत्तता, पृथक राज्य की मांग या विशेष पैकेज की प्राप्ति होता है।
उदाहरण – तेलंगाना आंदोलन:
आंध्र प्रदेश से अलग होकर तेलंगाना राज्य के निर्माण की मांग 1950 के दशक से उठी थी। आंदोलन का आधार आर्थिक उपेक्षा, रोजगार में भेदभाव और सांस्कृतिक पहचान की रक्षा था। अंततः 2014 में तेलंगाना भारत का 29वां राज्य बना।
दूसरा उदाहरण – गोरखा आंदोलन (दार्जिलिंग):
पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग क्षेत्र में नेपाली भाषी गोरखा समुदाय ने ‘गोरखालैंड’ राज्य की मांग की। यह आंदोलन भी क्षेत्रीय अस्मिता, भाषाई पहचान और विकास की उपेक्षा के आधार पर खड़ा हुआ।
क्षेत्रीय आंदोलन लोकतंत्र के भीतर जनता की आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति देने के उपकरण हैं। हालांकि, इनका चरम रूप देश की एकता के लिए चुनौती बन सकता है। अतः राज्य को संतुलित और संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
25. किसान आंदोलन पर लेख लिखिए
भारतीय किसान आंदोलन देश के सबसे बड़े जनआंदोलनों में से एक है, जिसकी जड़ें ब्रिटिश काल से लेकर आज तक फैली हैं। किसानों के संघर्षों का इतिहास औपनिवेशिक शोषण से शुरू होता है, जैसे – चंपारण सत्याग्रह, बारदोली आंदोलन आदि। स्वतंत्रता के बाद भी कृषि नीति, कीमतों की अनिश्चितता, ऋणजाल और पूंजीवादी दबावों के कारण किसान आंदोलित होते रहे।
हाल का उदाहरण: 2020-21 के किसान आंदोलन ने तीन कृषि कानूनों के विरोध में लाखों किसानों को दिल्ली की सीमाओं पर लामबंद किया। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों के किसानों ने शांतिपूर्ण धरना देकर सरकार पर दबाव बनाया। आंदोलन का नेतृत्व संयुक्त किसान मोर्चा ने किया। अंततः सरकार को तीनों कानून वापस लेने पड़े।
इस आंदोलन ने किसानों की राजनीतिक चेतना, एकजुटता और लोकतांत्रिक अधिकारों की शक्ति को उजागर किया। साथ ही, यह आंदोलन कृषि नीति, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP), कॉर्पोरेट नियंत्रण और ग्रामीण अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दों को राष्ट्रीय बहस में ले आया।
26. भारत के अन्य पिछड़ा वर्ग आंदोलन के मुख्य लक्षणों की व्याख्या कीजिए
अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) आंदोलन भारत में सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष का महत्वपूर्ण आयाम है। इसका उद्देश्य सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को राजनीतिक और आर्थिक रूप से मुख्यधारा में लाना रहा है।
मुख्य लक्षण:
- सामाजिक न्याय पर बल: यह आंदोलन समान अवसर, आरक्षण और प्रतिनिधित्व की मांग पर केंद्रित रहा है।
- मंडल आयोग की भूमिका: 1980 में गठित मंडल आयोग ने OBC की पहचान और 27% आरक्षण की सिफारिश की, जिसे 1990 में लागू किया गया।
- राजनीतिक एकजुटता: बिहार, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु जैसे राज्यों में OBC वर्गों ने अपनी राजनीतिक शक्ति का उपयोग कर सशक्तिकरण की दिशा में कदम बढ़ाया।
- आरक्षण विरोधी प्रतिक्रियाएं: सवर्ण वर्गों द्वारा आरक्षण विरोधी आंदोलन भी उभरे, जिससे सामाजिक तनाव बढ़ा।
- संगठित नेतृत्व: कर्पूरी ठाकुर, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह जैसे नेताओं ने इस आंदोलन को दिशा दी।
OBC आंदोलन ने भारतीय राजनीति और समाज में प्रतिनिधित्व की अवधारणा को नया आयाम दिया। हालाँकि, अब इसकी चुनौतियाँ ‘क्रीमी लेयर’, नीति का दुरुपयोग और जातिगत राजनीति से जुड़ी हैं।
प्रश्न 27: भारत के अन्य पिछड़ा वर्ग आंदोलन के मुख्य लक्षणों की व्याख्या कीजिए।
भारत में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) आंदोलन सामाजिक न्याय और समान अवसर की माँग पर आधारित रहा है। इसके मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं:
- सांस्कृतिक पुनरुत्थान: ओबीसी आंदोलनों ने जातिगत हीनता को नकारते हुए सांस्कृतिक पहचान को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। जैसे, ‘सत्यशोधक समाज’ ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती दी।
- आरक्षण की माँग: मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर ओबीसी वर्ग ने सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की माँग को लेकर व्यापक आंदोलन किए।
- राजनीतिक सशक्तिकरण: 1980 के बाद ओबीसी नेताओं और पार्टियों ने सशक्त राजनीतिक उपस्थिति दर्ज कराई। समाजवादी विचारधारा ने इस आंदोलन को दिशा दी।
- क्षेत्रीय स्वरूप: बिहार, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु जैसे राज्यों में यह आंदोलन अधिक सक्रिय रहा। प्रत्येक क्षेत्र में इसकी रणनीति और मुद्दे अलग-अलग रहे।
- समाज सुधारक नेताओं का प्रभाव: पेरियार, फुले, कांशीराम जैसे नेताओं के विचारों ने इस आंदोलन को वैचारिक आधार प्रदान किया।
इस आंदोलन ने भारत में सामाजिक न्याय की अवधारणा को सुदृढ़ किया, परंतु इसका राजनीतिकरण कई बार जातिवादी ध्रुवीकरण को भी जन्म देता है।
प्रश्न 28: पारिस्थितिकी आंदोलन के राजनीतिक आयाम का वर्णन कीजिए।
पारिस्थितिकी आंदोलन केवल पर्यावरण रक्षा तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके राजनीतिक आयाम भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं:
- नीतिगत हस्तक्षेप की माँग: ये आंदोलन सरकारों से पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और पर्यावरण के अनुकूल नीतियाँ बनाने की माँग करते हैं।
- विकास मॉडल की आलोचना: पारंपरिक ‘विकास बनाम पर्यावरण’ की बहस में पारिस्थितिकी आंदोलनों ने वैकल्पिक विकास मॉडल को प्रस्तुत किया है।
- जन भागीदारी: इन आंदोलनों ने लोकतांत्रिक भागीदारी को बढ़ावा दिया है, जैसे- चिपको आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन आदि।
- राजनीतिक दलों पर दबाव: ये आंदोलन दलों को पर्यावरणीय मुद्दों को अपने एजेंडे में शामिल करने के लिए मजबूर करते हैं।
- वैश्विक प्रभाव: भारत के पारिस्थितिकी आंदोलनों ने जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और सतत विकास जैसे वैश्विक मुद्दों पर भी दबाव बनाया।
इस प्रकार, पारिस्थितिकी आंदोलन भारतीय राजनीति को अधिक उत्तरदायी, टिकाऊ और समावेशी बनाने में योगदान देते हैं।
प्रश्न 29: भारत में धार्मिक आंदोलन पर एक लेख लिखिए।
भारत में धार्मिक आंदोलन ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से गहराई से जुड़े हुए हैं। ये आंदोलन धार्मिक सुधार, पुनरुत्थान और विरोध दोनों रूपों में देखे गए हैं:
- धार्मिक सुधार आंदोलन: जैसे ब्रह्म समाज, आर्य समाज, सिंह सभा—इनका उद्देश्य सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करना था।
- पुनरुत्थानवादी आंदोलन: जैसे शिवसेना, विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों ने धार्मिक पहचान की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए आंदोलन चलाए।
- धर्म आधारित राजनीति: धार्मिक आंदोलनों का प्रयोग कई बार वोट बैंक राजनीति में हुआ। इससे सामाजिक ध्रुवीकरण और साम्प्रदायिकता भी बढ़ी।
- धार्मिक अल्पसंख्यकों के आंदोलन: मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, सिख धर्म में खालिस्तान आंदोलन इत्यादि विशिष्ट अधिकारों और पहचान के लिए उठे।
इन आंदोलनों ने एक ओर धार्मिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति को सशक्त किया, वहीं दूसरी ओर कई बार सांप्रदायिक तनाव और हिंसा को भी जन्म दिया।
प्रश्न 30: भारतीय लोकतंत्र में सामाजिक आंदोलन की महत्ता की व्याख्या कीजिए।
भारतीय लोकतंत्र में सामाजिक आंदोलनों की महत्ता निम्नलिखित रूपों में सामने आती है:
- नीतिगत हस्तक्षेप: ये आंदोलन सरकार को नीतियों के निर्माण में जवाबदेह बनाते हैं। जैसे, जन लोकपाल आंदोलन।
- जनजागरण: सामाजिक मुद्दों पर जनता को जागरूक करते हैं, जैसे चिपको आंदोलन ने पर्यावरण की ओर ध्यान खींचा।
- प्रगतिशील परिवर्तन: दलित, महिला, आदिवासी आंदोलनों ने हाशिए पर खड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाने का कार्य किया।
- लोकतंत्र की गहराई: सामाजिक आंदोलन लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखते हैं और नागरिक सहभागिता को प्रोत्साहित करते हैं।
- संवैधानिक मूल्यों की रक्षा: ये आंदोलन संविधान प्रदत्त अधिकारों की रक्षा और विस्तार में सहयोग करते हैं।
इस प्रकार, सामाजिक आंदोलन भारतीय लोकतंत्र की आत्मा हैं, जो जनता और सत्ता के बीच सेतु का कार्य करते हैं।
प्रश्न 31: सामाजिक आंदोलन के अध्ययन का उदारवादी दृष्टिकोण क्या है? इसकी दूसरे दृष्टिकोण के साथ तुलना और भेद कैसे होता है।
उदारवादी दृष्टिकोण के अनुसार सामाजिक आंदोलन समाज के भीतर धीरे-धीरे होने वाले सुधारों और संस्थागत परिवर्तनों के माध्यम से उत्पन्न होते हैं। इसके मुख्य बिंदु:
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संस्थागत सुधार पर बल: उदारवादी दृष्टिकोण सामाजिक आंदोलनों को लोकतंत्र के अंग के रूप में देखता है।
- नॉन-वायलेंट एवं वैध विरोध: यह दृष्टिकोण आंदोलनों को वैधानिक माध्यम से समस्याओं के समाधान की प्रक्रिया मानता है।
तुलना:
- मार्क्सवादी दृष्टिकोण: वर्ग संघर्ष को प्राथमिक मानता है, जबकि उदारवादी दृष्टिकोण संस्थागत सुधार पर विश्वास करता है।
- गांधीवादी दृष्टिकोण: आत्मबल और नैतिकता पर आधारित होता है, परंतु उदारवादी दृष्टिकोण तर्क और कानूनी संस्थानों पर निर्भर करता है।
इस प्रकार, उदारवादी दृष्टिकोण सामाजिक आंदोलनों को लोकतांत्रिक प्रणाली का हिस्सा मानते हुए सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाता है।
प्रश्न 32: सुधार और क्रांतिकारी आंदोलन के बीच क्या अंतर है?
सुधार आंदोलन और क्रांतिकारी आंदोलन दोनों ही सामाजिक परिवर्तन के साधन हैं, परंतु उनके उद्देश्य और कार्यप्रणाली में भिन्नता होती है:
| बिंदु |
सुधार आंदोलन |
क्रांतिकारी आंदोलन |
| उद्देश्य |
सामाजिक व्यवस्था में सुधार |
मौजूदा व्यवस्था का उखाड़ फेंकना |
| तरीका |
शांतिपूर्ण, कानूनी, अहिंसक |
हिंसक या उग्र, प्रतिरोधात्मक |
| उदाहरण |
ब्रह्म समाज, आर्य समाज |
नक्सलवादी आंदोलन, फ्रांसीसी क्रांति |
| परिवर्तन की गति |
क्रमिक, धीमी |
तीव्र और पूर्ण |
इस प्रकार, सुधार आंदोलन सामाजिक व्यवस्था के भीतर रहकर परिवर्तन चाहता है, जबकि क्रांतिकारी आंदोलन पूरी व्यवस्था को बदलने की चेष्टा करता है।
प्रश्न 33: भारतीय समाज पर आर्थिक उदारीकरण के प्रभाव का परीक्षण कीजिए।
1991 के बाद भारत में आर्थिक उदारीकरण ने सामाजिक ढाँचे को गहराई से प्रभावित किया:
- मध्यम वर्ग का विस्तार: उपभोक्तावाद बढ़ा, जीवनशैली में बदलाव आया।
- असमानता में वृद्धि: अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ी।
- शिक्षा और स्वास्थ्य पर प्रभाव: निजीकरण के चलते गरीबों की पहुँच में कमी आई।
- ग्रामीण क्षेत्र की उपेक्षा: कृषि आधारित रोजगार घटे और ग्रामीण-शहरी पलायन बढ़ा।
- महिलाओं की भूमिका: सेवा क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी परंतु असमान वेतन और असुरक्षित कार्यक्षेत्र अब भी मुद्दे हैं।
उदारीकरण ने जहां विकास के अवसर प्रदान किए, वहीं सामाजिक असमानता को भी गहरा किया।
प्रश्न 34: लेख (200 शब्दों में)
क) बाल श्रम:
बाल श्रम एक सामाजिक अपराध है, जो बच्चों के शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास को प्रभावित करता है। आर्थिक असमानता, गरीबी, अशिक्षा इसके प्रमुख कारण हैं। कानूनन भारत में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों से काम कराना निषिद्ध है, फिर भी यह प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित है। सरकारी प्रयासों और एनजीओ की पहल के बावजूद, बाल श्रमिकों की संख्या में भारी कमी नहीं आई है। इसका समाधान शिक्षा के प्रसार, सामाजिक सुरक्षा और आर्थिक समावेशन में निहित है।
ख) बहुजन समाज पार्टी:
बहुजन समाज पार्टी (BSP) का गठन कांशीराम ने 1984 में किया था। इसका उद्देश्य दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और धार्मिक अल्पसंख्यकों को राजनीतिक शक्ति प्रदान करना था। बीएसपी ने दलितों के राजनीतिकरण को नया आयाम दिया और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सत्ता भी प्राप्त की। इसकी राजनीति सामाजिक न्याय और ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ के सिद्धांत पर आधारित रही है।
ग) केरल में मछुआरों का आंदोलन (लगभग 200 शब्दों में)
केरल में मछुआरों का आंदोलन राज्य के तटीय समुदायों के अधिकारों और आजीविका की रक्षा हेतु संगठित हुआ एक महत्वपूर्ण जनांदोलन रहा है। यह आंदोलन मुख्यतः अस्थायी निवासों को हटाने, बड़े व्यापारिक ट्रॉलर कंपनियों की अंधाधुंध मछली पकड़ने की नीति और पारंपरिक मछुआरों की उपेक्षा के खिलाफ केंद्रित रहा। 1980 और 1990 के दशक में यह आंदोलन खासकर सक्रिय रहा, जहाँ मछुआरे संगठनों ने तटीय क्षेत्र संरक्षण और सरकार द्वारा स्थायी नीतियों की माँग की।
इन आंदोलनों के चलते सरकार को पारंपरिक मछुआरों के लिए संरक्षण कानून बनाने पड़े, साथ ही मछली पकड़ने की सीमाओं और समयसीमा के निर्धारण जैसे उपाय किए गए। यह आंदोलन पारिस्थितिक न्याय, जीविका के अधिकार और स्थानीय समुदायों के स्वशासन का प्रतीक भी बना।
घ) भारत में कृषक आंदोलन (लगभग 200 शब्दों में)
भारत में कृषक आंदोलन लंबे समय से कृषि संकट, मूल्य समर्थन, कर्ज माफी और भूमि सुधार जैसे मुद्दों पर केंद्रित रहा है। 1980 के दशक में शरद जोशी और महेन्द्र सिंह टिकैत जैसे नेताओं ने किसानों के हक में बड़े स्तर पर आंदोलन किए। हरित क्रांति से हुए असंतुलन, बढ़ते कृषि लागत, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की अनिश्चितता तथा निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों ने किसानों में असंतोष को बढ़ाया।
2020-21 के किसान आंदोलन ने केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के विरोध में राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन का रूप लिया, जिसमें पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की भूमिका प्रमुख रही। इस आंदोलन ने भारत में लोकतांत्रिक विरोध की नई पहचान बनाई।
इन आंदोलनों ने यह स्पष्ट कर दिया कि कृषि केवल एक आर्थिक गतिविधि नहीं, बल्कि सामाजिक अस्तित्व का प्रश्न भी है।
प्रश्न 35: आरक्षण की सामाजिक न्याय के एक साधन के रूप में चर्चा कीजिए।
आरक्षण भारत में सामाजिक न्याय की अवधारणा को साकार करने का एक महत्वपूर्ण उपाय रहा है। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 15(4), 16(4) और 46 के अंतर्गत अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों को शैक्षणिक संस्थानों, सरकारी नौकरियों और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण की व्यवस्था की गई है।
सामाजिक न्याय का उद्देश्य:
सामाजिक न्याय का तात्पर्य है—ऐसे समाज का निर्माण जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर, सम्मान और संसाधनों तक पहुँच प्राप्त हो। भारत में ऐतिहासिक रूप से दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों को सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से वंचित रखा गया। आरक्षण इन वर्गों को समान अवसर प्रदान कर उनके सशक्तिकरण का माध्यम बनता है।
आरक्षण के लाभ:
- वंचित समुदायों का प्रतिनिधित्व बढ़ा।
- शिक्षा और नौकरियों में इन वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित हुई।
- सामाजिक आत्म-सम्मान और राजनीतिक चेतना में वृद्धि हुई।
आलोचनाएँ:
- कभी-कभी आरक्षण का लाभ केवल ‘क्रीमी लेयर’ को मिल जाने की आलोचना होती है।
- जातिगत पहचान के आधार पर राजनीति में ध्रुवीकरण बढ़ा है।
- आरक्षण को ‘सांविधानिक दायित्व’ के बजाय ‘राजनीतिक लाभ’ के लिए उपयोग किया गया।
निष्कर्ष:
आरक्षण सामाजिक न्याय की दिशा में एक प्रभावी कदम है, लेकिन इसके साथ-साथ शिक्षा, आर्थिक समावेशन और सामाजिक चेतना के समवेत प्रयास भी आवश्यक हैं। केवल आरक्षण से वंचित समुदायों की संपूर्ण प्रगति संभव नहीं, परंतु यह उनकी यात्रा का आधार अवश्य है।
प्रश्न 36: सन 1980 से दलितों की राजनीतिक लामबंदी की चर्चा कीजिए।
1980 के दशक से भारत में दलितों की राजनीतिक लामबंदी ने एक नई दिशा ली है। यह वह समय था जब दलित समुदाय ने केवल सामाजिक आंदोलनों में भाग लेने के बजाय स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति बनने की दिशा में कदम उठाया। इस प्रक्रिया में दलित चेतना, संगठन और नेतृत्व ने अहम भूमिका निभाई।
मुख्य घटनाएँ और संगठन:
इस दशक की सबसे उल्लेखनीय घटना थी बहुजन समाज पार्टी (BSP) का गठन, जिसे कांशीराम ने 1984 में स्थापित किया। उन्होंने ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ के सिद्धांत पर आधारित राजनीति को अपनाया। बीएसपी ने दलितों, पिछड़ों और धार्मिक अल्पसंख्यकों को एक साथ जोड़कर सत्ता में भागीदारी का रास्ता बनाया।
राजनीतिक भागीदारी और रणनीति:
दलित राजनीतिक लामबंदी ने यह साबित कर दिया कि वंचित समुदाय केवल वोट बैंक नहीं, बल्कि सशक्त सत्ता-भागीदार बन सकते हैं। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में बीएसपी ने सत्ता में आकर दलित नेतृत्व को सशक्त किया। मायावती का मुख्यमंत्री बनना इस आंदोलन की परिणति थी।
चुनौतियाँ:
हालांकि, दलित राजनीति को जातिवादी विभाजन, संसाधनों की कमी और प्रमुख दलों की राजनीतिक रणनीतियों का सामना करना पड़ा। कई बार दलित लामबंदी सिर्फ प्रतीकात्मक बनकर रह गई।
निष्कर्ष:
1980 के बाद दलितों की राजनीतिक लामबंदी ने भारतीय राजनीति को नया आयाम दिया। यह एक ऐसा मंच बना, जिसने दलितों की पहचान, अधिकार और प्रतिनिधित्व को सशक्त किया।
प्रश्न 37: उत्तर पूर्व भारत में नृजातीय आंदोलन के सामान्य लक्षण क्या हैं?
उत्तर-पूर्व भारत में नृजातीय आंदोलन भारत की एक विशिष्ट सामाजिक-राजनीतिक चुनौती हैं। ये आंदोलन क्षेत्रीय पहचान, सांस्कृतिक संरक्षण, राजनीतिक स्वायत्तता और संसाधनों की भागीदारी के लिए लड़े जाते हैं।
सामान्य लक्षण:
- सांस्कृतिक विशिष्टता:
अधिकांश आंदोलन अपनी संस्कृति, भाषा और परंपराओं की रक्षा के लिए होते हैं, जैसे नगालैंड, मिज़ोरम, मणिपुर के आदिवासी समुदायों के आंदोलन।
- राजनीतिक स्वायत्तता की माँग:
कई समूह पूर्ण स्वतंत्रता (जैसे NSCN-IM) या विशेष स्वायत्तता की माँग करते हैं, जिससे भारत के संघीय ढांचे में जटिलता बढ़ जाती है।
- सशस्त्र संघर्ष:
कई आंदोलन उग्रवादी रूप ले चुके हैं। इससे शांति व्यवस्था और विकास दोनों प्रभावित हुए हैं।
- अर्थव्यवस्था और विस्थापन:
इन आंदोलनों का एक कारण आर्थिक उपेक्षा भी है। खनिज, जंगल और जमीन पर अधिकार की माँग आम है।
- आंतरिक और बाह्य प्रेरणा:
कुछ आंदोलन सीमावर्ती देशों (जैसे म्यांमार, चीन) के संपर्क में रहते हुए प्रेरित हुए हैं।
निष्कर्ष:
उत्तर-पूर्व के नृजातीय आंदोलन भारतीय संघीय व्यवस्था, आंतरिक सुरक्षा और विकास नीति के लिए चुनौती हैं, परंतु सही संवाद और संवैधानिक उपायों के ज़रिए इन्हें लोकतांत्रिक तरीके से हल किया जा सकता है।
प्रश्न 38: दलित एवं पिछड़े वर्ग आंदोलन के राजनीतिकरण से हुए लाभ की व्याख्या कीजिए।
भारत में दलित और पिछड़े वर्गों के आंदोलन का राजनीतिकरण उनकी सामाजिक सशक्तिकरण की दिशा में एक निर्णायक कदम रहा है। इसका मुख्य उद्देश्य था—सत्ता की भागीदारी, पहचान की पुनर्स्थापना और अधिकारों की सुरक्षा।
राजनीतिक लाभ:
- प्रतिनिधित्व में वृद्धि:
इन आंदोलनों ने राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बढ़ावा दिया। संसद, विधानसभाओं और स्थानीय निकायों में दलित एवं पिछड़े वर्गों की संख्या में वृद्धि हुई।
- नीति निर्माण में भागीदारी:
आरक्षण नीति, विशेष सहायता योजनाएँ, SC/ST एक्ट, सामाजिक कल्याण कार्यक्रम आदि का निर्माण इन्हीं वर्गों के आंदोलन के दबाव में हुआ।
- सामाजिक चेतना और अधिकारों की जानकारी:
राजनीतिकरण ने इन वर्गों में आत्मगौरव, पहचान और संवैधानिक अधिकारों की समझ को बढ़ाया।
- दलित राजनीति का उदय:
बहुजन समाज पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी आदि का उदय इन आंदोलनों की राजनीतिक परिणति थी, जिसने दलितों को सत्ता में भागीदारी दी।
चुनौतियाँ:
कुछ मामलों में यह आंदोलन जातीय ध्रुवीकरण और तुष्टीकरण का कारण भी बने, जिससे सामाजिक एकता प्रभावित हुई।
निष्कर्ष:
दलित और पिछड़े वर्गों के आंदोलन का राजनीतिकरण लोकतंत्र को समावेशी बनाने की दिशा में आवश्यक कदम था। इससे न केवल सत्ता की प्रकृति बदली बल्कि सामाजिक न्याय की अवधारणा को भी नई ऊर्जा मिली।
प्रश्न 39: आदिवासी अपने समक्ष गंभीर मुद्दों से कैसे राहत पा सकते हैं?
भारत के आदिवासी समुदाय अनेक जटिल समस्याओं से जूझ रहे हैं—जैसे भूमि विस्थापन, संसाधनों पर अधिकार, सामाजिक बहिष्कार, शिक्षा और स्वास्थ्य की कमी। इन समस्याओं से राहत के लिए बहुआयामी रणनीति की आवश्यकता है।
सम्भावित समाधान:
- भूमि अधिकारों की सुरक्षा:
भूमि अधिग्रहण कानून 2013 और वन अधिकार अधिनियम 2006 का कड़ाई से पालन करके आदिवासियों को ज़मीन पर अधिकार दिलाना अनिवार्य है।
- शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच:
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और चिकित्सा सेवा सुनिश्चित कर आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ा जा सकता है।
- आर्थिक स्वावलंबन:
स्थानीय कुटीर उद्योग, हस्तशिल्प और वन उत्पाद आधारित रोजगार योजनाओं से आत्मनिर्भरता लाई जा सकती है।
- राजनीतिक सहभागिता:
आदिवासियों को पंचायत और अन्य प्रतिनिधित्व संस्थाओं में भागीदारी देकर निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए।
- संस्कृति और पहचान की रक्षा:
भाषा, परंपरा और धर्म की रक्षा के लिए राज्य नीति में विशेष स्थान दिया जाना चाहिए।
निष्कर्ष:
सरकारी योजनाओं, संवैधानिक अधिकारों और जन आंदोलनों के समन्वय से ही आदिवासी अपने समक्ष खड़ी समस्याओं से राहत पा सकते हैं। सशक्तिकरण की दिशा में एक संवेदनशील, समावेशी और सहभागी दृष्टिकोण ही सफल हो सकता है।
प्रश्न 40: सामाजिक सुधार कितने महत्वपूर्ण हैं और उन्हें प्राप्त करना मुश्किल क्यों है?
सामाजिक सुधार का अर्थ है—समाज की पुरानी, असमान और हानिकारक मान्यताओं को समाप्त कर एक न्यायसंगत, समतामूलक और प्रगतिशील समाज का निर्माण करना। भारत में जाति व्यवस्था, लैंगिक भेदभाव, बाल विवाह, छुआछूत आदि के खिलाफ सुधार आंदोलन लंबे समय से चले हैं।
महत्त्व:
- सामाजिक सुधारों से समाज में समानता, न्याय और मानव अधिकारों की स्थापना होती है।
- यह कमजोर वर्गों को सशक्त बनाते हैं और लोकतंत्र को मजबूत करते हैं।
- सुधार आधुनिक शिक्षा, वैज्ञानिक सोच और मानवतावादी मूल्यों को बढ़ावा देते हैं।
कठिनाइयाँ:
- परंपरा और संस्कृति का विरोध:
कई बार सामाजिक कुरीतियाँ धर्म और परंपरा के नाम पर टिकी होती हैं, जिससे उनके विरोध में आवाज उठाना कठिन होता है।
- राजनीतिक समर्थन की कमी:
सुधार कई बार सत्ता को नुकसान पहुँचाते हैं, इसलिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी होती है।
- शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ापन:
जागरूकता और शिक्षा के अभाव में समाज सुधारों को अपनाने में पीछे रहता है।
- सामाजिक असमानता और पितृसत्ता:
गहरे सामाजिक ढांचे में बैठी असमानताएँ बदलाव को धीमा करती हैं।
निष्कर्ष:
सामाजिक सुधार अत्यंत आवश्यक हैं लेकिन उन्हें लागू करना जटिल होता है। इसके लिए शिक्षा, राजनीतिक इच्छाशक्ति, सामाजिक चेतना और सक्रिय नागरिक भागीदारी जरूरी है।
41. सामाजिक आंदोलन को समझने के लिए एक सैद्धांतिक ढांचा कितना महत्वपूर्ण है?
सामाजिक आंदोलनों का अध्ययन करना केवल घटनाओं के वर्णन तक सीमित नहीं होता, बल्कि इसके पीछे की प्रेरणाओं, संरचनाओं और प्रभावों को समझने के लिए एक सैद्धांतिक ढांचा आवश्यक होता है। यह ढांचा हमें आंदोलनों के कारण, प्रक्रिया और परिणाम को बेहतर ढंग से समझने में सहायता करता है।
सैद्धांतिक ढांचे विभिन्न दृष्टिकोणों से विकसित हुए हैं, जैसे — उदारवादी दृष्टिकोण, जो संस्थागत प्रतिक्रियाओं और राजनीतिक अवसरों पर बल देता है; मार्क्सवादी दृष्टिकोण, जो वर्ग संघर्ष और आर्थिक शोषण की पृष्ठभूमि में आंदोलनों की व्याख्या करता है; गांधीवादी दृष्टिकोण, जो अहिंसक प्रतिरोध और नैतिक आग्रह पर बल देता है; तथा नई सामाजिक आंदोलन थ्योरी, जो पहचान, संस्कृति और पर्यावरणीय मुद्दों पर आधारित आंदोलनों की व्याख्या करती है।
यह ढांचा यह समझने में मदद करता है कि कोई आंदोलन कब और कैसे शुरू होता है, कौन लोग इससे जुड़े होते हैं, किन साधनों का उपयोग होता है, और क्या यह केवल सुधारवादी होता है या क्रांतिकारी। इसके अतिरिक्त, यह हमें यह भी समझने में मदद करता है कि आंदोलन क्यों सफल होते हैं या विफल।
उदाहरण के लिए, नर्मदा बचाओ आंदोलन को राजनीतिक अवसर थ्योरी और संसाधन जुटान थ्योरी दोनों से समझा जा सकता है। पहला दृष्टिकोण बताता है कि सरकार की नीतिगत कमजोरियों और न्यायपालिका की सक्रियता ने आंदोलन को गति दी, जबकि दूसरा बताता है कि कैसे संगठनों, बुद्धिजीवियों और मीडिया के सहयोग से संसाधनों की प्रभावी जुटान हुई।
निष्कर्ष: सैद्धांतिक ढांचा सामाजिक आंदोलनों को केवल घटनाओं के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना, सत्ता समीकरण और चेतना की अभिव्यक्ति के रूप में समझने की दृष्टि प्रदान करता है। इससे नीति निर्माण, सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक भागीदारी को सुदृढ़ किया जा सकता है।
42. भारत के सुधारों के लिए जातिगत कारक कैसे और क्यों महत्वपूर्ण हैं?
भारत एक विविधतापूर्ण समाज है, जहाँ जाति न केवल सामाजिक पहचान का आधार है बल्कि संसाधनों तक पहुँच, राजनीतिक भागीदारी और सामाजिक प्रतिष्ठा का निर्धारक भी रही है। इसलिए, भारत में किसी भी सामाजिक सुधार या नीति को प्रभावी बनाने के लिए जातिगत कारकों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
महत्व के कारण:
- सामाजिक संरचना की जड़ता: जाति भारतीय समाज की एक ऐतिहासिक और गहरी संरचना है। सुधार तब तक प्रभावी नहीं हो सकते जब तक वे जातिगत असमानता को संबोधित नहीं करते।
- आरक्षण और सामाजिक न्याय: पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण प्रदान कर शिक्षा, रोजगार और राजनीति में भागीदारी सुनिश्चित की जाती है। यह सुधार जातिगत भेदभाव को कम करने का प्रयास है।
- राजनीतिक लामबंदी: जाति, भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण कारक है। दलित, ओबीसी और अन्य वर्गों की राजनीतिक भागीदारी ने नीति निर्माण को प्रभावित किया है।
- सामाजिक आंदोलनों का आधार: कई सामाजिक आंदोलन जैसे दलित आंदोलन, पिछड़ा वर्ग आंदोलन, जाति-आधारित जनगणना की माँग आदि जातिगत आधार पर ही संचालित हुए हैं।
- सुधारों की स्वीकार्यता: यदि जातिगत असमानता को नजरअंदाज किया गया, तो सुधारों को समाज में व्यापक स्वीकार्यता नहीं मिल सकती। उदाहरणतः भूमि सुधारों में उच्च जातियों के वर्चस्व के कारण लाभ सीमित रहा।
निष्कर्ष: भारत में जातिगत कारक सामाजिक सुधारों के लिए एक आवश्यक आधार प्रदान करते हैं। जब तक सुधार जातिगत असमानता को पहचानकर उसे दूर करने की दिशा में नहीं बढ़ते, तब तक वे स्थायी और न्यायसंगत परिवर्तन नहीं ला सकते।
43. भारत में उदारीकरण ने सामाजिक परिवर्तनों को कैसे प्रभावित किया?
1991 में भारत में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत एक ऐतिहासिक मोड़ थी, जिसने न केवल आर्थिक ढाँचे को बदला, बल्कि सामाजिक संरचना में भी गहरे बदलाव लाए।
प्रभाव:
- मध्यम वर्ग का उदय: उदारीकरण ने नए रोजगार अवसरों और उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया, जिससे एक नया शहरी मध्यम वर्ग विकसित हुआ, जो शिक्षा, सूचना और सेवाओं का लाभ उठा सका।
- नौकरी के स्वरूप में बदलाव: पारंपरिक नौकरियों की जगह कॉर्पोरेट, IT और सेवा क्षेत्र की नौकरियाँ आईं, जिससे युवा पीढ़ी की सोच और जीवनशैली में परिवर्तन आया।
- नारी सशक्तिकरण: निजी क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी, जिससे आर्थिक स्वतंत्रता और सामाजिक प्रतिष्ठा में सुधार हुआ।
- सांस्कृतिक प्रभाव: उपभोक्तावादी संस्कृति, ब्रांड और वैश्विक मीडिया के प्रभाव से पारंपरिक जीवनशैली और मूल्यों में बदलाव आया।
- असमानता में वृद्धि: एक ओर शहरी वर्ग ने लाभ उठाया, वहीं ग्रामीण और हाशिये पर खड़े समुदाय अपेक्षाकृत पिछड़ गए। डिजिटल डिवाइड और आर्थिक विषमता बढ़ी।
- आंदोलनों का उदय: उदारीकरण के दुष्प्रभावों के विरुद्ध किसान आंदोलन, मजदूर आंदोलन और वैश्वीकरण विरोधी आंदोलन उभरे।
निष्कर्ष: उदारीकरण ने भारत में सामाजिक गतिशीलता को तीव्र किया, लेकिन साथ ही सामाजिक असमानता और सांस्कृतिक तनाव भी बढ़ाए। इसलिए यह आवश्यक है कि आर्थिक नीतियाँ सामाजिक न्याय और समावेशिता पर आधारित हों।
44. वैश्वीकरण के प्रमुख लक्षण क्या हैं?
वैश्वीकरण वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से विभिन्न राष्ट्रों, समाजों और अर्थव्यवस्थाओं के बीच परस्पर संबंध और निर्भरता बढ़ती है। यह एक बहुआयामी प्रक्रिया है जिसमें आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और पर्यावरणीय पहलू शामिल होते हैं।
वैश्वीकरण के प्रमुख लक्षण:
- अंतरराष्ट्रीय व्यापार और निवेश का विस्तार: वैश्वीकरण के कारण सीमाओं के पार व्यापार और पूंजी प्रवाह में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ वैश्विक बाजार में प्रवेश कर रही हैं और निवेश के नए अवसर पैदा हो रहे हैं।
- सूचना और संचार प्रौद्योगिकी का विकास: इंटरनेट, मोबाइल और डिजिटल तकनीक ने सूचनाओं के प्रवाह को तेज और सुलभ बनाया है। विश्व एक “ग्लोबल विलेज” बन गया है।
- संस्कृति का आदान-प्रदान: वैश्वीकरण ने विभिन्न संस्कृतियों को करीब लाया है। पॉप संस्कृति, खान-पान, फैशन, संगीत और फिल्मों में वैश्विक प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
- अर्थव्यवस्थाओं का आपसी निर्भरता: एक देश की आर्थिक नीतियाँ और घटनाएँ अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं को भी प्रभावित करती हैं। उदाहरणतः अमेरिका में मंदी का असर भारत जैसे देशों की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है।
- श्रम और उत्पादन का वैश्वीकरण: उत्पादन की श्रृंखला वैश्विक बन गई है — एक उत्पाद के विभिन्न हिस्से अलग-अलग देशों में बनते हैं और एक स्थान पर असेंबल होते हैं।
- वैश्विक संस्थाओं की भूमिका में वृद्धि: विश्व व्यापार संगठन (WTO), अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), और विश्व बैंक जैसी संस्थाएँ वैश्विक आर्थिक नीतियों को प्रभावित करती हैं।
- वैश्विक पर्यावरणीय और स्वास्थ्य चिंताएँ: जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता क्षय, महामारी आदि वैश्विक स्तर पर साझा चिंताएँ बन गई हैं।
निष्कर्ष:
वैश्वीकरण ने अवसर और चुनौतियाँ दोनों प्रस्तुत की हैं। यह एक ओर समृद्धि, नवाचार और जागरूकता का माध्यम बना है, तो दूसरी ओर सामाजिक असमानता, सांस्कृतिक क्षरण और पर्यावरणीय संकट को भी जन्म दिया है।
45. भारत में आरक्षण की राजनीति का विश्लेषण कीजिए।
भारत में आरक्षण एक संवैधानिक व्यवस्था है जिसका उद्देश्य ऐतिहासिक रूप से वंचित वर्गों — अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों — को समान अवसर प्रदान करना है। परंतु समय के साथ आरक्षण एक राजनीतिक उपकरण बन गया है।
आरक्षण की राजनीति के प्रमुख आयाम:
- सामाजिक न्याय का माध्यम: आरक्षण वंचित वर्गों को शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में अवसर प्रदान करता है, जिससे सामाजिक असमानता कम करने में सहायता मिलती है।
- राजनीतिक लामबंदी का साधन: चुनावी राजनीति में आरक्षण का उपयोग वोट बैंक सशक्तीकरण के लिए किया गया है। जातीय और वर्गीय पहचानों के आधार पर राजनीतिक दल आरक्षण को एक मांग के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
- आंदोलन और विरोध: मंडल आयोग की सिफारिशों पर लागू हुए OBC आरक्षण ने आरक्षण विरोध और समर्थन में बड़े आंदोलन उत्पन्न किए। हाल के वर्षों में पटेल, जाट और मराठा समुदायों द्वारा भी आरक्षण की मांगें उठीं।
- क्रीमी लेयर और भीतर की असमानता: आरक्षण का लाभ अक्सर उसी वर्ग के अंदर एक सीमित वर्ग तक पहुँचता है। इससे सामाजिक न्याय की अवधारणा को आंशिक रूप से चुनौती मिलती है।
- शैक्षिक संस्थानों में प्रभाव: आरक्षण ने उच्च शिक्षा में वंचित वर्गों की भागीदारी बढ़ाई है, लेकिन कभी-कभी योग्यता और प्रतिस्पर्धा के मुद्दों को लेकर बहस खड़ी होती है।
निष्कर्ष: भारत में आरक्षण की राजनीति सामाजिक न्याय और समावेशिता की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है, परंतु इसे प्रभावी और न्यायसंगत बनाए रखने के लिए निरंतर मूल्यांकन और सुधार आवश्यक हैं।
46. संसाधन जुटाना के सिद्धांत को समझाइए।
सामाजिक आंदोलनों के अध्ययन में “संसाधन जुटान सिद्धांत” (Resource Mobilization Theory) एक प्रमुख अवधारणा है। यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि किसी आंदोलन की सफलता केवल असंतोष या शोषण की भावना पर निर्भर नहीं करती, बल्कि यह इस बात पर भी निर्भर करती है कि आंदोलनकर्ता कितनी कुशलता से संसाधनों को जुटाते और प्रबंधित करते हैं।
मुख्य विशेषताएँ:
- संगठनात्मक संरचना: आंदोलन को व्यवस्थित, अनुशासित और रणनीतिक ढंग से संचालित करने के लिए संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है।
- नेतृत्व और योजना: कुशल नेतृत्व आंदोलन को दिशा देता है। योजनाबद्ध रणनीति और समन्वय आंदोलन की प्रभावशीलता बढ़ाते हैं।
- संसाधनों की विविधता: आंदोलन को चलाने के लिए धन, समय, मानव संसाधन, संचार माध्यम, वैचारिक समर्थन, और संस्थागत सहयोग जैसे अनेक संसाधनों की आवश्यकता होती है।
- बाहरी समर्थन: मीडिया, बुद्धिजीवी वर्ग, एनजीओ और राजनीतिक दलों से मिलने वाला समर्थन आंदोलन को वैधता और व्यापक पहुंच प्रदान करता है।
- राजनीतिक अवसर: यदि आंदोलन राजनीतिक संदर्भ में अनुकूल अवसरों का लाभ उठा सके, तो उसकी सफलता की संभावना बढ़ जाती है।
उदाहरण:
नर्मदा बचाओ आंदोलन, चिपको आंदोलन, और हालिया किसान आंदोलन — सभी ने संसाधन जुटाने के सिद्धांत के अनुरूप कार्य करते हुए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समर्थन प्राप्त किया।
निष्कर्ष:
संसाधन जुटान सिद्धांत सामाजिक आंदोलनों को समझने का एक व्यवहारिक ढांचा प्रदान करता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि असंतोष को प्रभावी आंदोलन में बदलने के लिए संगठन, नेतृत्व और संसाधनों का समुचित प्रबंधन अत्यंत आवश्यक है।
47. दक्षिण एशियाई देशों की पर्यावरण संबंधी चिंताओं को संक्षेप में समझाइए
दक्षिण एशिया — जिसमें भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान और मालदीव शामिल हैं — दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है। इस क्षेत्र की भौगोलिक विविधता और तीव्र सामाजिक-आर्थिक गतिविधियाँ इसे विभिन्न पर्यावरणीय संकटों के प्रति अत्यंत संवेदनशील बनाती हैं।
मुख्य पर्यावरणीय चिंताएँ:
- जलवायु परिवर्तन और समुद्र स्तर में वृद्धि:
विशेष रूप से मालदीव और बांग्लादेश जैसे देशों के लिए समुद्र स्तर में वृद्धि एक अस्तित्वगत संकट है। जलवायु परिवर्तन के कारण चक्रवातों और बाढ़ की तीव्रता बढ़ रही है।
- वायु प्रदूषण:
दक्षिण एशियाई शहरों जैसे दिल्ली, लाहौर, काठमांडू और ढाका में वायु गुणवत्ता विश्व में सबसे खराब है। इससे स्वास्थ्य समस्याएँ जैसे अस्थमा, फेफड़ों की बीमारियाँ और समयपूर्व मृत्यु में वृद्धि हो रही है।
- जल संकट:
भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में जल स्रोतों का अति दोहन और प्रदूषण बड़ी समस्या है। औद्योगिक और घरेलू अपशिष्ट नदियों और भूजल को विषाक्त बना रहे हैं।
- जैव विविधता का क्षरण:
हिमालय क्षेत्र, पश्चिमी घाट और सुंदरबन जैसी जैव विविधता से समृद्ध जगहों पर मानव अतिक्रमण, वनों की कटाई और शहरीकरण के कारण प्रजातियाँ संकट में हैं।
- वनों की कटाई और भूमि क्षरण:
कृषि विस्तार, शहरीकरण और जलाऊ लकड़ी की मांग के कारण वनों का भारी नुकसान हुआ है, जिससे मिट्टी की गुणवत्ता और पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हो रहे हैं।
- प्राकृतिक आपदाएँ:
भूकंप (नेपाल, भारत), बाढ़ (बांग्लादेश), चक्रवात (ओडिशा, श्रीलंका), और भूस्खलन (हिमालयी क्षेत्र) जैसी आपदाएँ इस क्षेत्र की पर्यावरणीय संवेदनशीलता को दर्शाती हैं।
निष्कर्ष:
दक्षिण एशिया को साझा पर्यावरणीय दृष्टिकोण की आवश्यकता है। क्षेत्रीय सहयोग, जैसे SAARC पर्यावरणीय पहल, और सतत विकास रणनीतियाँ इस क्षेत्र को पारिस्थितिक रूप से सुरक्षित और टिकाऊ बना सकती हैं।
48. ज्वालामुखी क्या है? इसके विभिन्न प्रकारों को संक्षेप में समझाइए
परिभाषा:
ज्वालामुखी पृथ्वी की सतह पर वह स्थान होता है जहाँ से मैग्मा, गैस और राख पृथ्वी के अंदर से बाहर निकलते हैं। यह घटना आमतौर पर पृथ्वी की प्लेटों की टकराहट या अलगाव के क्षेत्रों में होती है।
ज्वालामुखी के प्रमुख प्रकार:
- शील्ड ज्वालामुखी (Shield Volcano):
- यह सबसे विस्तृत होते हैं परंतु ऊँचाई कम होती है।
- इनमें लावा बहुत तरल होता है, जिससे वह दूर तक फैलता है।
- उदाहरण: हवाई द्वीप का मौना लोआ।
- स्ट्रैटो ज्वालामुखी (Strato/Composite Volcano):
- लावा, राख और चट्टानों की परतों से मिलकर बने होते हैं।
- विस्फोट प्रायः तीव्र और विनाशकारी होता है।
- उदाहरण: माउंट फुजी (जापान), माउंट वेसुवियस (इटली)।
- सिन्डर कोन ज्वालामुखी (Cinder Cone):
- यह आकार में छोटे होते हैं और तेजी से बनते हैं।
- राख और छोटे चट्टानों के टुकड़ों से बने होते हैं।
- उदाहरण: पैरिकुटिन (मेक्सिको)।
- काल्डेरा (Caldera):
- जब ज्वालामुखी का मुँह विस्फोट के कारण ध्वस्त हो जाता है, तो एक बड़ा गड्ढा बनता है जिसे काल्डेरा कहते हैं।
- उदाहरण: क्रेटर लेक (यूएसए)।
निष्कर्ष:
ज्वालामुखी पृथ्वी की आंतरिक सक्रियता का एक प्रमुख संकेत हैं। ये प्राकृतिक आपदा के साथ-साथ जैव विविधता और भू-पर्यटन के लिए भी महत्वपूर्ण होते हैं।
49. चर्चा कीजिए कि भारत में “बीज आत्महत्याओं” का भूमंडलीकरण से क्या संबंध था?
भारत में “बीज आत्महत्याएँ” विशेष रूप से वर्ष 1990 के बाद सामने आईं जब वैश्वीकरण और उदारीकरण के चलते कृषि क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भूमिका बढ़ी। किसानों की आत्महत्या का एक प्रमुख कारण बीज और कृषि तकनीक से जुड़ा आर्थिक संकट था।
भूमंडलीकरण के प्रभाव:
- हाइब्रिड बीजों की निर्भरता:
वैश्विक कंपनियों द्वारा उच्च लागत वाले हाइब्रिड बीजों का प्रचार किया गया, जिनकी पुनः उपयोग की संभावना नहीं थी। इससे किसान हर सीजन में बीज खरीदने को मजबूर हो गए।
- पारंपरिक बीजों का ह्रास:
बाजार की प्रतिस्पर्धा में पारंपरिक, सस्ते और जैविक बीज पीछे छूट गए, जिससे किसानों की आत्मनिर्भरता घटी।
- कर्ज का दुष्चक्र:
महंगे बीज, उर्वरक और कीटनाशकों के लिए किसान कर्ज लेते रहे। फसल असफल होने पर वे इस कर्ज से उबर नहीं पाए।
- विनियमन की कमी:
सरकार द्वारा बीज कंपनियों की कीमतों और गुणवत्ता पर पर्याप्त नियंत्रण न होने से किसान शोषण का शिकार हुए।
- जीएम फसलों का प्रभाव:
जैसे-जैसे Bt कपास जैसे जीन संवर्धित बीजों का चलन बढ़ा, लागत में वृद्धि हुई लेकिन वांछित उत्पादन नहीं मिला।
निष्कर्ष:
भूमंडलीकरण ने किसानों को बाजार आधारित कृषि के लिए मजबूर किया, जिससे आत्महत्याओं की घटनाएँ बढ़ीं। समाधान के लिए टिकाऊ कृषि, पारंपरिक बीज बैंक और सरकारी निगरानी की आवश्यकता है।
50. विषैला अवशिष्ट क्या है? उदाहरण दीजिए। विषैला या खतरनाक अवशिष्ट से संबंधित एक सम्मेलन का उल्लेख कीजिए। ऐसे अवशिष्ट का निपटान कैसे किया जाता है?
विषैला अवशिष्ट (Toxic Waste):
ऐसा अपशिष्ट जिसमें रासायनिक, रेडियोधर्मी, जैविक या अन्य प्रकार के विषैले तत्व हों, जो मनुष्य, जानवर, पौधों और पर्यावरण को हानि पहुँचा सकते हैं, विषैला अवशिष्ट कहलाता है।
उदाहरण:
- कीटनाशक अपशिष्ट (जैसे DDT)
- भारी धातु अपशिष्ट (जैसे सीसा, पारा)
- रेडियोधर्मी अपशिष्ट (परमाणु संयंत्रों से)
- जैवचिकित्सा अपशिष्ट (अस्पतालों से)
प्रमुख अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन:
बेसल कन्वेंशन (1989):
यह विषैले और खतरनाक अपशिष्टों के सीमा पार परिवहन और निपटान को नियंत्रित करने के लिए बना। इसका उद्देश्य विकसित देशों से विकासशील देशों में होने वाले विषैले कचरे के निर्यात को रोकना है।
विषैले अवशिष्ट का निपटान:
- उन्नत उपचार संयंत्र:
विशेष तकनीकों से अपशिष्ट को रासायनिक रूप से निष्क्रिय किया जाता है।
- लैंडफिल में सुरक्षित निपटान:
विशेष रूप से डिजाइन किए गए लैंडफिल में उन्हें सुरक्षित रूप से दफनाया जाता है।
- इंसीनेरेशन (दहन):
अत्यधिक तापमान पर अपशिष्ट को जलाया जाता है ताकि विषैले तत्व निष्क्रिय हो सकें।
- रीसायक्लिंग और पुनः उपयोग:
कुछ रासायनिक अवशिष्टों को पुनः प्रयोग योग्य तत्वों में बदला जाता है।
निष्कर्ष:
विषैले अवशिष्टों का अनुचित निपटान मानव और पारिस्थितिक तंत्र के लिए गंभीर संकट है। इसके लिए सख्त नियम, तकनीकी प्रबंधन और अंतरराष्ट्रीय सहयोग आवश्यक है।
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