यहाँ पर “गांधी पाश्चात् अहिंसक आंदोलन (Non-Violent Movements after Gandhi)” विषय पर आधारित प्रश्नों के उत्तर प्रस्तुत किए गए हैं, प्रत्येक उत्तर लगभग 500 शब्दों में है। यह शैली UPSC मुख्य परीक्षा (GS & Essay) के अनुरूप है:
1. महात्मा गांधी की भारत के लिए संकल्पना और उसकी समकालीन महत्ता का वर्णन कीजिए
महात्मा गांधी का भारत एक नैतिक, आत्मनिर्भर, ग्राम आधारित और समतामूलक समाज था। उनका सपना ऐसा भारत था जहाँ राजनीतिक स्वतंत्रता केवल सत्ता परिवर्तन तक सीमित न होकर व्यक्ति और समाज के नैतिक, आर्थिक और सामाजिक उत्थान का आधार बने।
गांधी की भारत की संकल्पना:
- ग्राम स्वराज: गांधी का आदर्श भारत हजारों स्वायत्त, आत्मनिर्भर गांवों का होगा जहाँ नागरिकों को हर स्तर पर भागीदारी प्राप्त होगी।
- अहिंसा आधारित शासन: उनका भारत शांति, सह-अस्तित्व और करुणा पर आधारित होगा, जहाँ हिंसा का कोई स्थान न हो।
- सामाजिक समता: अस्पृश्यता, जातिगत भेदभाव और सामाजिक असमानता का अंत हो।
- आर्थिक विकेंद्रीकरण: छोटे उद्योग, हस्तशिल्प और कुटीर उद्योग आधारित स्थानीय अर्थव्यवस्था।
- शिक्षा और नैतिकता: नैतिक शिक्षा और बुनियादी तालीम का जोर, जिससे व्यक्ति नैतिक रूप से सशक्त बन सके।
समकालीन महत्ता:
- केंद्रित विकास के दुष्परिणाम: वर्तमान में शहरीकरण, पर्यावरणीय क्षरण और आर्थिक विषमता ने गांधी के विकेन्द्रीकृत विकास की प्रासंगिकता बढ़ा दी है।
- जलवायु परिवर्तन और स्थायित्व: उनका टिकाऊ विकास दृष्टिकोण आज के जलवायु संकट में अत्यंत प्रासंगिक है।
- राजनीतिक असहिष्णुता: गांधी की सहिष्णुता और सत्य पर आधारित राजनीति आज के ध्रुवीकरण वाले वातावरण में मार्गदर्शक बन सकती है।
- नैतिक नेतृत्व की कमी: आज जब राजनीति में नैतिकता का ह्रास हुआ है, गांधी की नीतियाँ सार्वजनिक जीवन में शुद्धता लाने का मार्ग हैं।
इस प्रकार, गांधी का भारत केवल अतीत की कल्पना नहीं बल्कि भविष्य के लिए भी एक नैतिक दिशा है।
2. अहिंसा आंदोलन अपने उद्देश्य के लिए कैसे शक्ति प्राप्त करना चाहते हैं? समझाइए
अहिंसात्मक आंदोलनों की शक्ति उनके नैतिक बल, जनसहभागिता और संवाद की रणनीति में निहित होती है। गांधी के बाद भी अनेक आंदोलनों ने सत्य, अहिंसा और आत्मबल को साधन बनाकर सामाजिक परिवर्तन की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
शक्ति प्राप्त करने के तरीके:
- नैतिक प्राधिकार: अहिंसात्मक आंदोलन अत्याचार को उजागर करके समाज का नैतिक समर्थन अर्जित करते हैं। इससे दमनकारी सत्ता पर नैतिक दबाव बनता है।
- जन आंदोलन: जनता की सक्रिय भागीदारी इन आंदोलनों की आत्मा है। भूदान, चिपको और एनआरसी विरोध जैसे आंदोलनों में जनशक्ति ही मुख्य हथियार रही।
- सिविल नाफरमानी: जब कोई कानून या नीति अन्यायपूर्ण हो, तब उसका अहिंसात्मक विरोध समाज में वैधता की बहस खड़ी करता है।
- सार्वजनिक चेतना: मीडिया, जनसंपर्क, और शांतिपूर्ण रैलियों के माध्यम से जनमत बनाकर सत्ता को विवश किया जाता है।
- मानवीय संवेदना को जाग्रत करना: ये आंदोलन भावनात्मक स्तर पर समाज को जोड़ते हैं जिससे व्यापक समर्थन मिलता है।
उदाहरण:
- प्लाचीमाडा आंदोलन: कोका-कोला संयंत्र के खिलाफ शांतिपूर्ण आंदोलन ने भू-जल दोहन के मुद्दे को उजागर किया।
- चिपको आंदोलन: पर्यावरण की रक्षा के लिए ग्रामीण महिलाओं का वृक्षों से चिपककर विरोध, एक अहिंसात्मक प्रतीक बना।
निष्कर्षतः, अहिंसा आंदोलन ताकत के बजाय आत्मबल, हिंसा के बजाय विवेक और राजनीति के बजाय नैतिकता पर आधारित होते हैं।
3. भूदान आंदोलन की समकालीन महत्व का परीक्षण कीजिए
भूदान आंदोलन की शुरुआत आचार्य विनोबा भावे ने 1951 में की थी, जो स्वतंत्र भारत में गांधीवादी मूल्यों के अनुरूप भूमि-संवितरण का प्रयास था। इसका उद्देश्य था कि ज़मींदार अपनी भूमि का कुछ भाग भूमिहीनों को स्वेच्छा से दान करें।
आंदोलन के उद्देश्य:
- भूमिहीनों को भूमि अधिकार देना
- समाज में आर्थिक समानता लाना
- अहिंसात्मक और स्वैच्छिक सामाजिक सुधार
प्रभाव और उपलब्धियाँ:
- लगभग 42 लाख एकड़ भूमि का संकल्प हुआ, जिसमें से लगभग 10 लाख एकड़ ही लाभार्थियों को मिला।
- अनेक क्षेत्रों में भूमि के हस्तांतरण से गरीबों को कृषि आधारित आजीविका प्राप्त हुई।
- इसने भूमि सुधार पर वैकल्पिक विचार प्रस्तुत किया।
समकालीन महत्ता:
- भूमि असमानता आज भी एक चुनौती: आज भी ग्रामीण भारत में भूमिहीनता और कृषि संकट गंभीर मुद्दे हैं। भूदान आंदोलन एक नैतिक चेतना के रूप में प्रेरणा देता है।
- सामाजिक पूंजी और सहभागिता: यह आंदोलन स्वैच्छिक भागीदारी का उदाहरण है जो आज के सरकारी और NGO कार्यक्रमों के लिए आदर्श बन सकता है।
- प्राकृतिक संसाधनों पर न्याय: आदिवासियों और किसानों को उनके संसाधनों पर अधिकार दिलाने में यह आंदोलन प्रासंगिक दृष्टिकोण प्रदान करता है।
निष्कर्षतः, भले ही भूदान आंदोलन की व्यावहारिक सफलता सीमित रही, परंतु इसका नैतिक आदर्श आज भी भूमि सुधार, सामाजिक न्याय और पर्यावरणीय समानता के लिए प्रेरणा है।
तत्वों को बताइए
जयप्रकाश नारायण (जेपी) द्वारा 1974 में बिहार आंदोलन के दौरान प्रस्तावित ‘संपूर्ण क्रांति’ महज राजनीतिक परिवर्तन नहीं था, बल्कि यह सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, और शैक्षणिक स्तरों पर भी व्यापक परिवर्तन की मांग थी। यह गांधीवादी मूल्यों से प्रेरित एक व्यापक सामाजिक आंदोलन था।
संपूर्ण क्रांति के प्रमुख तत्व:
- राजनीतिक क्रांति:
- भ्रष्टाचार, तानाशाही प्रवृत्तियों और सत्ता के दुरुपयोग के विरुद्ध एक वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना।
- लोकतंत्र की आत्मा को बचाने हेतु जनभागीदारी और सत्ता के विकेंद्रीकरण पर बल।
- सामाजिक क्रांति:
- जातिवाद, साम्प्रदायिकता, लैंगिक असमानता और छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों का उन्मूलन।
- समाज में समरसता, सामाजिक न्याय और समानता की स्थापना।
- आर्थिक क्रांति:
- विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था का समर्थन, जिसमें कुटीर उद्योग और कृषि आधारित जीवन पद्धति हो।
- आर्थिक शोषण, असमानता और बेरोजगारी के विरुद्ध संघर्ष।
- शैक्षणिक क्रांति:
- शिक्षा प्रणाली में सुधार, जिसमें चरित्र निर्माण, नैतिकता और व्यावसायिक कौशल को महत्व मिले।
- ग्रामीण शिक्षा और व्यावहारिक ज्ञान को बढ़ावा देना।
- नैतिक और सांस्कृतिक क्रांति:
- सार्वजनिक जीवन में नैतिकता की पुनर्स्थापना।
- सत्ता को सेवा और उत्तरदायित्व का माध्यम बनाना।
- ग्राम स्वराज:
- गांधीवादी ग्राम स्वराज की पुनर्परिभाषा, जहां गांव प्रशासन और विकास के मुख्य केंद्र बनें।
महत्त्व:
जेपी का आंदोलन गांधी के बाद भारत का सबसे व्यापक और प्रभावशाली अहिंसक जनांदोलन था, जिसने आपातकाल का विरोध कर भारतीय लोकतंत्र की रक्षा की।
5. ग्रीनपीस को किन उपलब्धियों का श्रेय दिया जा सकता है
ग्रीनपीस (Greenpeace) एक अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन है, जो पर्यावरण संरक्षण के लिए अहिंसक प्रतिरोध और सक्रियता के माध्यम से कार्य करता है। इसकी स्थापना 1971 में कनाडा में हुई थी।
प्रमुख उपलब्धियाँ:
- परमाणु परीक्षण विरोध:
- ग्रीनपीस ने अंटार्कटिका और प्रशांत महासागर में परमाणु परीक्षणों के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध किया और वैश्विक जनमत बनाकर कई परीक्षणों को रुकवाया।
- व्हेल और समुद्री जीवन की रक्षा:
- व्हेल शिकार पर रोक के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अभियान चलाए। इन प्रयासों ने International Whaling Commission को संरक्षण नीति अपनाने को मजबूर किया।
- वर्षावनों का संरक्षण:
- अमेज़न, कांगो बेसिन, और दक्षिण-पूर्व एशिया में जंगल कटाई के खिलाफ अभियान चलाकर कई कॉरपोरेट को जिम्मेदार वनों की नीति अपनाने पर मजबूर किया।
- क्लाइमेट चेंज विरोध:
- जीवाश्म ईंधन कंपनियों और कार्बन उत्सर्जन पर वैश्विक जनदबाव बनाकर COP सम्मेलनों में सतत विकास और नवीकरणीय ऊर्जा के पक्ष में माहौल बनाया।
- जैव-प्रौद्योगिकी पर चेतावनी:
- आनुवांशिक रूप से परिवर्तित (GM) फसलों के खतरे को उजागर किया और इसके खिलाफ वैश्विक जागरूकता बढ़ाई।
विधियाँ:
- ग्रीनपीस अहिंसात्मक प्रतिरोध, नाव यात्राएँ, जन-प्रदर्शन, मीडिया मुहिम, और तकनीकी अध्ययन के माध्यम से पर्यावरणीय अन्याय का विरोध करता है।
ग्रीनपीस आज पर्यावरणीय सक्रियता का वैश्विक चेहरा बन चुका है, जो गांधीवादी विचारों से प्रेरित हो अहिंसात्मक तरीकों से बदलाव लाने का प्रयास करता है।
6. निषेध पर गांधी के क्या विचार थे
गांधीजी का निषेध (Prohibition) के प्रति दृष्टिकोण सामाजिक सुधार का अभिन्न अंग था। वे शराब और मादक पदार्थों के सेवन को नैतिक, सामाजिक और आर्थिक पतन का कारण मानते थे।
मुख्य विचार:
- नैतिक दृष्टिकोण:
- गांधीजी के अनुसार, शराब मनुष्य को विवेकहीन और नैतिक रूप से दुर्बल बना देती है। इससे व्यक्ति का आत्म-नियंत्रण खत्म होता है।
- सामाजिक प्रभाव:
- शराब सेवन घरेलू हिंसा, अपराध, गरीबी और सामाजिक विघटन का मुख्य कारण बनती है। इसका सबसे अधिक प्रभाव महिलाओं और बच्चों पर पड़ता है।
- आर्थिक दृष्टिकोण:
- गरीब व्यक्ति अपनी कमाई शराब पर खर्च करता है, जिससे उसकी आर्थिक स्थिति और बिगड़ती है। इसलिए गांधीजी शराबबंदी को गरीबी उन्मूलन से जोड़ते थे।
- राज्य की जिम्मेदारी:
- गांधीजी मानते थे कि सरकार को केवल राजस्व के लिए शराब की बिक्री को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए। यह राजनीतिक और नैतिक पतन को बढ़ाता है।
- समाज सुधारक की भूमिका:
- उन्होंने स्वयं खादी ग्रामोद्योग, प्रचार, व्यक्तिगत उदाहरण और प्रचार से शराबबंदी की मुहिम चलाई। महिलाओं और स्वयंसेवकों को इस दिशा में संगठित किया।
आज की प्रासंगिकता:
- शराबबंदी आज भी एक प्रमुख सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा है। बिहार, गुजरात जैसे राज्यों ने गांधी के विचारों को आधार बनाकर शराबबंदी लागू की है।
इस प्रकार, गांधीजी का निषेध आंदोलन केवल शराब के खिलाफ नहीं, बल्कि नैतिक पुनर्जागरण और सामाजिक सुधार की व्यापक प्रक्रिया थी।
7. लघु लेख:
(अ) प्लाचीमाडा आंदोलन
प्लाचीमाडा आंदोलन केरल के पलक्कड़ जिले के आदिवासी गांव प्लाचीमाडा में 2000 के दशक की शुरुआत में उभरा एक जल अधिकार और पर्यावरण संरक्षण पर केंद्रित अहिंसक आंदोलन था। यह आंदोलन कोका-कोला कंपनी के खिलाफ स्थानीय समुदाय द्वारा संगठित किया गया था।
आंदोलन के कारण:
- कोका-कोला द्वारा भूजल का अत्यधिक दोहन जिससे जल स्रोत सूखने लगे।
- अपशिष्ट से जल और मिट्टी प्रदूषित होने लगी।
- किसानों की फसलें बर्बाद होने लगीं और पीने योग्य जल संकट में आ गया।
प्रमुख विशेषताएँ:
- आंदोलन का नेतृत्व दलित और आदिवासी महिलाएं कर रही थीं।
- सत्याग्रह, धरना और शांतिपूर्ण विरोध के माध्यम से कंपनी के खिलाफ जनजागरूकता फैलाई गई।
- स्थानीय ग्राम सभा और NGOs का व्यापक सहयोग प्राप्त हुआ।
परिणाम:
- भारी जनदबाव और कानूनी कार्रवाई के कारण फैक्ट्री 2004 में बंद करनी पड़ी।
- यह आंदोलन जल अधिकारों के लिए जन संघर्ष का प्रतीक बन गया।
महत्ता:
यह आंदोलन गांधीवादी अहिंसा, जनसशक्तिकरण और पर्यावरणीय न्याय का एक उत्कृष्ट उदाहरण है जो आज भी स्थानीय संसाधनों पर लोगों के अधिकार की आवाज़ को मुखर करता है।
(ब) एकजुटता आंदोलन (Solidarity Movement)
एकजुटता आंदोलन (Solidarity Movement) 1980 के दशक में पोलैंड में उभरा, जो एक अहिंसक श्रमिक और लोकतांत्रिक अधिकारों का आंदोलन था। इसका नेतृत्व लेख वालेसा (Lech Wałęsa) ने किया, और यह समाजवादी तानाशाही के विरुद्ध शांति और संगठन की शक्ति का प्रतीक बना।
प्रमुख विशेषताएँ:
- मजदूर संघों और नागरिक समाज की भागीदारी से व्यापक समर्थन मिला।
- हड़तालें, विरोध प्रदर्शन और अंतरराष्ट्रीय समर्थन ने आंदोलन को ताकत दी।
- साम्यवाद के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रतिरोध के माध्यम से राजनीतिक और श्रमिक अधिकारों की मांग की गई।
सफलताएँ:
- पोलैंड में स्वतंत्र ट्रेड यूनियन को वैधता मिली।
- धीरे-धीरे समाजवादी शासन की नींव हिली और अंततः 1989 में लोकतांत्रिक चुनाव हुए।
- लेच वालेसा बाद में पोलैंड के राष्ट्रपति बने।
महत्त्व:
एकजुटता आंदोलन अहिंसात्मक संघर्षों की वैश्विक शक्ति का प्रतीक है। यह गांधीवादी सिद्धांतों से प्रेरित था और साबित करता है कि नैतिकता, संगठन और शांतिपूर्ण प्रतिरोध से तानाशाही का भी मुकाबला किया जा सकता है।
8. वन संरक्षण के लिए साइलेंट वैली सक्रियता एक नई शुरुआत है, समझाइए
साइलेंट वैली आंदोलन 1970 के दशक के उत्तरार्ध में केरल की साइलेंट वैली (Silent Valley) को संरक्षित करने के लिए चला एक प्रमुख पर्यावरणीय और अहिंसात्मक जन आंदोलन था। यह आंदोलन स्वतंत्र भारत के प्रथम संगठित पर्यावरण आंदोलनों में से एक था और पर्यावरण संरक्षण में नागरिक सहभागिता का प्रतीक बना।
पृष्ठभूमि:
- केरल सरकार ने पलक्कड़ जिले की साइलेंट वैली में एक जलविद्युत परियोजना की योजना बनाई थी।
- यह क्षेत्र जैव विविधता और संकटग्रस्त प्रजातियों से भरपूर था।
- वैज्ञानिक, पर्यावरणविद्, छात्रों और स्थानीय नागरिकों ने विरोध शुरू किया।
आंदोलन की विशेषताएँ:
- यह आंदोलन पूरी तरह अहिंसक और लोकतांत्रिक ढंग से संचालित हुआ।
- लेख, पत्र-पत्रिकाओं, पदयात्रा, जनसभा और जागरूकता अभियानों के ज़रिए विरोध किया गया।
- केरल साहित्यकारों, वैज्ञानिकों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने संयुक्त रूप से नेतृत्व किया।
परिणाम:
- प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1983 में परियोजना रद्द कर दी।
- 1985 में साइलेंट वैली को राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया गया।
महत्ता:
- यह आंदोलन भारत में पर्यावरणीय चेतना की नींव बना।
- इसने पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन की बहस को जन्म दिया।
- यह आज भी पारिस्थितिकी-आधारित नीति निर्माण में एक आदर्श उदाहरण है।
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