प्रश्न 51: मानव स्वभाव और प्राकृतिक अधिकारों के बारे में थॉमस हॉब्स की अवधारणा का मूल्यांकन कीजिए।
थॉमस हॉब्स (1588–1679) एक प्रमुख अंग्रेज दार्शनिक थे जिन्होंने आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की नींव रखी। उनका दृष्टिकोण मुख्यतः यथार्थवादी था और उन्होंने मानव स्वभाव को गहराई से विश्लेषित किया।
मानव स्वभाव की धारणा:
हॉब्स के अनुसार, मानव स्वभाव स्वार्थी, भय से प्रेरित और प्रतिस्पर्धी होता है। उनका मानना था कि प्राकृतिक अवस्था (state of nature) में प्रत्येक व्यक्ति अपनी रक्षा और स्वार्थ के लिए स्वतंत्र होता है। यह स्थिति “सभी के विरुद्ध सभी का युद्ध” (bellum omnium contra omnes) कहलाती है, जहाँ जीवन “क्रूर, हिंसक और छोटा” होता है।
प्राकृतिक अधिकार (Natural Rights):
हॉब्स के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को जन्म से कुछ प्राकृतिक अधिकार प्राप्त होते हैं, जिनमें प्रमुख है – आत्मरक्षा का अधिकार। लेकिन जब प्रत्येक व्यक्ति वही अधिकार उपयोग करता है, तो अराजकता फैलती है। अतः शांति के लिए लोग अपने कुछ अधिकार संप्रभु को सौंप देते हैं।
सामाजिक अनुबंध (Social Contract):
हॉब्स की राज्य की अवधारणा सामाजिक अनुबंध पर आधारित है, जहाँ व्यक्ति स्वेच्छा से अपनी स्वतंत्रता त्याग कर एक शक्तिशाली संप्रभु को सौंपते हैं। इस अनुबंध के माध्यम से कानून और व्यवस्था स्थापित होती है।
आलोचना:
- हॉब्स का मानव स्वभाव का चित्रण अत्यंत निराशावादी है।
- वह संप्रभु को पूर्ण शक्ति सौंपते हैं जिससे निरंकुशता की आशंका रहती है।
- उन्होंने स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों की उपेक्षा की है।
निष्कर्ष:
हॉब्स की मानव स्वभाव और प्राकृतिक अधिकारों की व्याख्या यद्यपि विवादास्पद है, परंतु उसने आधुनिक राज्य के निर्माण, अनुबंध सिद्धांत और कानून व्यवस्था की समझ को एक ठोस आधार दिया।
प्रश्न 52: सहमति, प्रतिरोध और सहनशीलता पर जॉन लॉक के विचारों पर चर्चा कीजिए।
जॉन लॉक (1632–1704) को आधुनिक उदारवाद का जनक माना जाता है। उन्होंने सामाजिक अनुबंध के आधार पर राज्य की वैधता, सहमति, प्रतिरोध और सहनशीलता के सिद्धांतों को विकसित किया।
1. सहमति (Consent):
लॉक के अनुसार, राज्य की वैधता जनता की सहमति पर आधारित होती है। कोई भी सरकार तभी वैध मानी जाती है जब वह नागरिकों की सहमति से बनी हो। यह सहमति व्यक्ति के कुछ प्राकृतिक अधिकारों को सरकार को सौंपने के बाद उत्पन्न होती है।
2. प्रतिरोध (Right to Resistance):
लॉक का मानना था कि यदि सरकार नागरिकों के जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति की रक्षा करने में विफल होती है, या निरंकुशता अपनाती है, तो जनता को सरकार के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार है। यह विचार 1688 की इंग्लिश क्रांति से प्रेरित था।
3. सहनशीलता (Toleration):
लॉक ने धार्मिक सहनशीलता का समर्थन किया। उनका मानना था कि राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी धार्मिक मान्यताओं का पालन करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।
निष्कर्ष:
लॉक के विचार आधुनिक लोकतंत्र, मानवाधिकार, और धर्मनिरपेक्षता के मूल सिद्धांतों के आधार बने हैं। उनका दर्शन राज्य को वैधता, उत्तरदायित्व और न्याय की कसौटी पर परखने की प्रेरणा देता है।
प्रश्न 53: नागरिक समाज की रूसो की आलोचना का परीक्षण कीजिए।
ज्यां जाक रूसो (1712–1778) ने नागरिक समाज की अवधारणा की कठोर आलोचना की। उन्होंने इसे सामाजिक असमानता और दासता का कारण बताया।
1. प्राकृतिक अवस्था बनाम नागरिक समाज:
रूसो के अनुसार, प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य स्वतंत्र, समान और नैतिक था। लेकिन जब संपत्ति का निजी स्वामित्व आया, तो वर्ग भेद और असमानता उत्पन्न हुई। इस परिवर्तन ने ‘नागरिक समाज’ को जन्म दिया।
2. संपत्ति की भूमिका:
रूसो मानते थे कि नागरिक समाज निजी संपत्ति की रक्षा के लिए स्थापित हुआ। इसने शक्तिशाली वर्गों को कमजोर वर्गों पर शासन करने की वैधता दी।
3. सामाजिक अनुबंध की आलोचना:
रूसो के अनुसार, परंपरागत सामाजिक अनुबंध कमजोरों को भ्रमित करने का उपकरण था। उन्होंने ‘सामान्य इच्छा’ (General Will) के सिद्धांत को प्रस्तुत किया, जो सच्चे लोकतांत्रिक अनुबंध की ओर संकेत करता है।
4. नैतिक पतन और दासता:
रूसो मानते थे कि नागरिक समाज में लोग कृत्रिम जरूरतों और दिखावे के पीछे दौड़ते हैं। इससे व्यक्ति का नैतिक पतन होता है और वह सामाजिक बंधनों की दासता में बंध जाता है।
निष्कर्ष:
रूसो की नागरिक समाज की आलोचना मानवीय स्वतंत्रता और समानता की चेतना का समर्थन करती है। उनके विचार क्रांतिकारी और आधुनिक लोकतांत्रिक सोच के प्रेरणा स्रोत बने।
प्रश्न 54: इमैनुएल कांट के शाश्वत शांति के विचार पर एक निबंध लिखिए।
इमैनुएल कांट (1724–1804) का ‘Perpetual Peace: A Philosophical Sketch’ (1795) एक अत्यंत प्रभावशाली राजनीतिक निबंध है जिसमें उन्होंने विश्व शांति की अवधारणा को प्रस्तुत किया।
1. शाश्वत शांति की संकल्पना:
कांट ने स्थायी वैश्विक शांति के लिए कुछ ठोस नियम प्रस्तावित किए। उनका विश्वास था कि यदि राज्य विशुद्ध नैतिकता और तर्क पर आधारित हों, तो युद्ध समाप्त किया जा सकता है।
2. प्रमुख प्रस्ताव:
- कोई भी गुप्त संधि वैध नहीं होनी चाहिए।
- स्वतंत्र राज्य गणराज्यात्मक प्रणाली को अपनाएं।
- स्थायी सेना का उन्मूलन हो।
- अन्य देशों में हस्तक्षेप वर्जित हो।
3. ‘विश्व नागरिकता’ की धारणा:
कांट का मानना था कि प्रत्येक मनुष्य को ‘विश्व नागरिक’ (Cosmopolitan) की तरह देखा जाना चाहिए, जिसकी गरिमा और अधिकार सार्वभौमिक हैं।
4. अंतरराष्ट्रीय कानून और संगठन:
कांट ने ऐसे वैश्विक संगठन की आवश्यकता बताई जो सभी राष्ट्रों को न्याय की एक साझा प्रणाली में बाँधे। यह विचार आज के संयुक्त राष्ट्र जैसे संस्थानों की नींव बना।
निष्कर्ष:
कांट की शाश्वत शांति की धारणा आज भी वैश्विक संबंधों, अंतरराष्ट्रीय कानून और मानवाधिकार की नीति निर्धारण में प्रासंगिक है। उनका दर्शन नैतिक विश्व व्यवस्था का सपना प्रस्तुत करता है।
प्रश्न 55: जेरेमी बेंथम के उपयोगितावादी सिद्धांत का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
जेरेमी बेंथम (1748–1832) ने उपयोगितावाद (Utilitarianism) के सिद्धांत की स्थापना की, जिसका मूल मंत्र था – “अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम सुख” (Greatest happiness for greatest number)।
मुख्य विचार:
बेंथम के अनुसार किसी भी कार्य, नीति या कानून का मूल्यांकन उसके परिणामों द्वारा होना चाहिए – अर्थात वह कितने लोगों के लिए कितना सुख लाता है।
Utility Principle:
उन्होंने “hedonic calculus” का विचार दिया जिसके अनुसार सुख और दुःख को मापा जा सकता है – उसकी तीव्रता, अवधि, निश्चितता, निकटता आदि के आधार पर।
आलोचना:
- यह सिद्धांत केवल परिणामों पर केंद्रित है, नैतिकता के इरादों की उपेक्षा करता है।
- व्यक्तिगत अधिकारों और अल्पसंख्यकों की उपेक्षा हो सकती है।
- सुख को मात्रात्मक रूप से मापना व्यावहारिक नहीं।
उपलब्धियाँ:
- इस सिद्धांत ने कानूनी सुधारों और सार्वजनिक नीतियों में उपयोगिता के आधार पर न्याय की समझ को बढ़ावा दिया।
- सामाजिक कल्याण और लोकतांत्रिक निर्णयों को तर्कसंगत बनाया।
निष्कर्ष:
बेंथम का उपयोगितावाद व्यावहारिक और समाजोपयोगी दृष्टिकोण प्रदान करता है, परंतु इसे केवल मूल्य निर्धारण का एकमात्र पैमाना नहीं माना जा सकता।
प्रश्न 56: टॉकविल के अनुसार राजनीति में धर्म की क्या भूमिका थी, व्याख्या कीजिए।
एलेक्सिस डी टॉकविल (1805–1859) ने अमेरिका के लोकतंत्र का अध्ययन करते हुए राजनीति में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर किया।
1. सामाजिक स्थायित्व का आधार:
टॉकविल मानते थे कि अमेरिका में लोकतंत्र की सफलता का एक कारण वहाँ की धार्मिक नैतिकता थी। धर्म ने नागरिकों में आत्मसंयम और उत्तरदायित्व की भावना उत्पन्न की।
2. धर्म और स्वतंत्रता का संबंध:
टॉकविल के अनुसार, धर्म व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थन करता है लेकिन उसे नैतिक सीमा भी प्रदान करता है। यह स्वतंत्रता को अराजकता में बदलने से रोकता है।
3. धर्मनिरपेक्ष सरकार, धार्मिक समाज:
टॉकविल ने जोर दिया कि राज्य को धर्म से अलग रहना चाहिए, लेकिन धर्म को समाज में नैतिक दिशा देने का कार्य करते रहना चाहिए।
4. लोकतंत्र में धर्म की भूमिका:
धर्म लोकतंत्र में जनता के नैतिक आचरण को सुनिश्चित करता है, जिससे राजनीतिक संस्थाएँ स्थायित्व प्राप्त करती हैं।
निष्कर्ष:
टॉकविल की दृष्टि में धर्म कोई आधिकारिक संस्था नहीं बल्कि सामाजिक नैतिकता की शक्ति है, जो लोकतांत्रिक समाज के मूल्यों को पुष्ट करती है।
प्रश्न 57: प्रतिनिधि सरकार पर जे.एस. मिल के विचारों पर चर्चा कीजिए।
जे.एस. मिल (1806–1873) ने अपनी पुस्तक “Representative Government” में प्रतिनिधिक लोकतंत्र को सरकार का सर्वश्रेष्ठ रूप माना।
1. प्रतिनिधि सरकार की आवश्यकता:
मिल के अनुसार, बड़ी आबादी वाले आधुनिक राज्यों में सीधे लोकतंत्र संभव नहीं है, अतः प्रतिनिधि प्रणाली आवश्यक है जो जनता के मतों के आधार पर काम करती है।
2. नागरिक भागीदारी:
मिल ने कहा कि लोकतंत्र का उद्देश्य केवल अच्छे प्रशासन का चयन नहीं है, बल्कि नागरिकों को नैतिक और बौद्धिक रूप से उन्नत बनाना भी है।
3. प्रतिनिधियों की जिम्मेदारी:
प्रतिनिधियों को जनता के हितों की रक्षा करनी चाहिए, परंतु उन्हें विशेषज्ञता के आधार पर निर्णय लेने की भी स्वतंत्रता होनी चाहिए।
4. आनुपातिक प्रतिनिधित्व:
मिल ने आनुपातिक प्रतिनिधित्व की वकालत की जिससे अल्पसंख्यकों को भी आवाज़ मिल सके।
निष्कर्ष:
जे.एस. मिल की प्रतिनिधि सरकार की अवधारणा आज भी आधुनिक लोकतंत्रों की संरचना में मार्गदर्शक सिद्ध होती है।
प्रश्न 58: कार्ल मार्क्स की क्रांति के सिद्धांत का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
कार्ल मार्क्स (1818–1883) के क्रांति सिद्धांत का आधार था – वर्ग संघर्ष। उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था को असमानता और शोषण का स्रोत बताया।
1. ऐतिहासिक भौतिकवाद:
मार्क्स के अनुसार, इतिहास वर्ग संघर्षों की श्रृंखला है – दास बनाम स्वामी, सामंती बनाम किसान, और अंततः पूंजीपति बनाम मजदूर।
2. क्रांति की प्रक्रिया:
मजदूर वर्ग (proletariat) जब पूंजीवाद के अंतर्निहित शोषण को समझेगा, तब वह सशस्त्र क्रांति करेगा और समाजवादी राज्य की स्थापना होगी।
3. राज्य का अंत:
मार्क्स के अनुसार, क्रांति के बाद सर्वहारा तानाशाही की स्थापना होगी, जो धीरे-धीरे राज्य को समाप्त कर वर्गहीन समाज की ओर ले जाएगी।
आलोचना:
- क्रांति की अपरिहार्यता पर संदेह किया गया है।
- पूंजीवाद ने कुछ देशों में आत्मसुधार की प्रक्रिया से शोषण को कम किया।
- हिंसा आधारित क्रांति आज के लोकतांत्रिक सिद्धांतों से मेल नहीं खाती।
निष्कर्ष:
मार्क्स की क्रांति की अवधारणा ऐतिहासिक चेतना, सामाजिक न्याय और शोषण की समझ को दिशा देती है, हालांकि उसका क्रियान्वयन समय और संदर्भ के अनुसार चुनौतीपूर्ण रहा है।
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