MPES3 Previous Year Question with Answer (Western Political Thinkers)

 


प्रश्न 1: प्लेटो की विधि पर एक निबंध लिखिए।



परिचय

प्लेटो, पश्चिमी राजनीतिक विचार के जनक माने जाते हैं। उन्होंने सत्य की खोज और ज्ञान प्राप्ति के लिए जो विधि अपनाई, वह दार्शनिक संवाद (Dialectics) या द्वंद्वात्मक पद्धति पर आधारित थी। उनकी विधि का उद्देश्य ज्ञान की ऊँचाइयों तक पहुँचने के लिए तर्क और विचार विनिमय का सहारा लेना था।


प्लेटो की विधि की विशेषताएं


  1. संवाद शैली (Socratic Method): प्लेटो की रचनाओं में संवाद पद्धति का प्रमुख स्थान है, जहाँ सुकरात पात्र के रूप में प्रश्न पूछता है और दूसरे पात्रों के उत्तर के माध्यम से सत्य को उजागर किया जाता है।
  2. नकारात्मक तर्क (Elenchus): प्लेटो प्रारंभ में एक परिभाषा को चुनौती देकर उसे खंडित करते हैं और फिर संशोधित दृष्टिकोण पर पहुँचते हैं।
  3. विवेक आधारित ज्ञान: प्लेटो मानते थे कि ज्ञान को तर्क से ही प्राप्त किया जा सकता है, अनुभव पर आधारित ज्ञान अस्थायी होता है।
  4. धारणा से विचार तक की यात्रा: प्लेटो की ‘गुफा की उपमा’ के माध्यम से बताया गया है कि आम आदमी भ्रम और आभासी दुनिया में जीता है, जबकि दार्शनिक तर्क द्वारा वास्तविकता को पहचानता है।
  5. दर्शन और राजनीति का संबंध: प्लेटो का मानना था कि केवल दार्शनिक ही राज्य का सही शासक हो सकता है क्योंकि वही सत्य और न्याय को जानता है।



प्लेटो की विधि की आलोचना


  • आदर्शवादी दृष्टिकोण: प्लेटो की विधि यथार्थ से दूर मानी जाती है क्योंकि वह वस्तुगत संसार को तुच्छ मानती है।
  • सामान्य जन की भूमिका नगण्य: ज्ञान के मामले में केवल दार्शनिक को ही सर्वज्ञ माना गया है, जो लोकतांत्रिक दृष्टिकोण से आलोचनीय है।
  • अनुभव की उपेक्षा: प्लेटो की विधि तर्क पर आधारित है, परंतु अनुभव आधारित ज्ञान की उपयोगिता को नकारती है।



निष्कर्ष

प्लेटो की विधि पश्चिमी दर्शन की बुनियाद है जिसने विचार और तर्क को राजनीति और नैतिकता का मूल आधार बनाया। यद्यपि उनके दृष्टिकोण में कुछ आदर्शवादी सीमाएं थीं, फिर भी उनकी पद्धति ने विचार और न्याय की खोज को एक सैद्धांतिक दिशा प्रदान की जो आज भी प्रासंगिक है।


प्रश्न 2: संपत्ति, परिवार और दास्ता पर अरस्तु के विचारों का परीक्षण कीजिए।



अरस्तु प्लेटो के शिष्य थे, लेकिन उन्होंने कई विषयों पर अपने गुरु से असहमति भी प्रकट की, विशेषकर संपत्ति, परिवार और दासता के प्रश्न पर। जहाँ प्लेटो संपत्ति और परिवार के उन्मूलन की वकालत करते थे, वहीं अरस्तु इन संस्थाओं को राज्य की आधारशिला मानते थे।


संपत्ति पर अरस्तु के विचार:

अरस्तु व्यक्तिगत संपत्ति के पक्षधर थे। उनका मानना था कि सामूहिक संपत्ति की अवधारणा व्यवहार में नहीं लाई जा सकती क्योंकि इससे श्रम की प्रेरणा समाप्त हो जाती है। वे संपत्ति के नैतिक उपयोग को महत्व देते हैं। अरस्तु के अनुसार संपत्ति का उद्देश्य केवल उपभोग नहीं बल्कि नैतिक और सामाजिक कल्याण है।


परिवार पर विचार:

अरस्तु के अनुसार परिवार समाज की मूल इकाई है। वह पुरुष और स्त्री के प्राकृतिक मिलन को सामाजिक संस्था मानते हैं और बच्चों के पालन-पोषण के लिए परिवार को आवश्यक मानते हैं। प्लेटो द्वारा परिवार के उन्मूलन के विचार की उन्होंने कड़ी आलोचना की।


दासता पर विचार:

अरस्तु का मानना था कि कुछ लोग जन्म से ही “प्राकृतिक दास” होते हैं और उनका स्वामी द्वारा शासित होना उनके हित में होता है। उनके अनुसार दास वह होता है जो अपने विवेक से निर्णय नहीं ले सकता। यद्यपि यह दृष्टिकोण आज के मानवाधिकारों के विरुद्ध है, उस समय इसे सामान्यतः स्वीकार किया गया था।


आलोचना:

अरस्तु के दासता संबंधी विचारों की आधुनिक काल में कड़ी आलोचना होती है। यह तर्क कि कोई व्यक्ति जन्म से दास हो सकता है, मानव समानता के सिद्धांत के विरुद्ध है। परिवार और संपत्ति पर उनके विचार अपेक्षाकृत अधिक व्यावहारिक हैं और आज भी सामाजिक संरचना में प्रासंगिक माने जाते हैं।


निष्कर्ष:

अरस्तु का चिंतन प्रायोगिक था। उन्होंने समाज की यथार्थ आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए संपत्ति, परिवार और दासता को राज्य की स्थिरता से जोड़ा। हालाँकि उनके कुछ विचार आज की मान्यताओं से भिन्न हैं, फिर भी उनकी व्यावहारिकता और सामाजिक दृष्टि उन्हें अद्वितीय बनाती है।





प्रश्न 3: निकोलो मैकियावेली के सरकार के रूपों के वर्गीकरण का वर्णन कीजिए।



निकोलो मैकियावेली पुनर्जागरण युग के एक व्यावहारिक राजनीतिक चिंतक थे। उन्होंने सत्ता और राज्य को नैतिकता से अलग करके देखा और “राजनीति को राजनीति की दृष्टि से” विश्लेषित किया। उनकी प्रसिद्ध कृति “दि प्रिंस” और “डिस्कोर्सेज” में उन्होंने सरकार के विभिन्न रूपों और उनके संचालन पर गहराई से विचार किया।


मैकियावेली ने सरकार को दो मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया:


  1. राजशाही (Monarchy): जहाँ सत्ता एक व्यक्ति के पास होती है।
  2. गणराज्य (Republic): जहाँ सत्ता नागरिकों के बीच साझा होती है।



इसके अतिरिक्त, उन्होंने प्लेटो और अरस्तु के वर्गीकरण से प्रभावित होकर सरकार के तीन मूल रूप माने:


  1. राजतंत्र (Monarchy) – जिसमें राजा शासन करता है।
  2. अभिजातशाही (Aristocracy) – जिसमें श्रेष्ठ वर्ग या कुलीनजन शासन करते हैं।
  3. लोकतंत्र (Democracy) – जिसमें सामान्य जनता शासन में भाग लेती है।



इन तीनों के पतनशील रूप भी उन्होंने चिन्हित किए:


  • राजतंत्र → अत्याचार
  • अभिजातशाही → कुलीन निरंकुशता
  • लोकतंत्र → भीड़तंत्र



मैकियावेली ने सरकार के चक्रवातीय सिद्धांत (Cycle Theory) को भी स्वीकार किया, जिसके अनुसार एक शासन प्रणाली समय के साथ भ्रष्ट हो जाती है और उसकी जगह कोई अन्य प्रणाली लेती है।


उनका दृष्टिकोण व्यावहारिक था:

उन्होंने माना कि राजनीतिक स्थिरता के लिए कभी-कभी कठोर निर्णय लेने पड़ते हैं और नैतिकता से ऊपर उठकर राज्य के हित में कार्य करना चाहिए। उनके अनुसार, एक अच्छा शासक वह है जो सत्ता को बनाए रखने के लिए आवश्यक कदम उठाए, चाहे वह नैतिक हों या नहीं।


आलोचना:

मैकियावेली पर राजनीतिक अवसरवाद और नैतिकता की उपेक्षा का आरोप लगा। परंतु यह भी सत्य है कि उन्होंने राजनीति को व्यावहारिक धरातल पर समझने का प्रयास किया।


निष्कर्ष:

मैकियावेली का सरकारों का वर्गीकरण राजनीति को यथार्थ दृष्टिकोण से समझाने का प्रयास है। उनके विचार आज भी यथार्थवादी राजनीति, सत्ता की प्रकृति और शासन की संरचना को समझने में उपयोगी हैं।





प्रश्न 4: सहमति, प्रतिरोध और सहनशीलता पर लॉक के विचारों की चर्चा कीजिए।



जॉन लॉक आधुनिक उदारवाद के जनक माने जाते हैं। उन्होंने सरकार, स्वतंत्रता और व्यक्ति के अधिकारों पर गहन चिंतन किया। उनकी प्रमुख कृति “टू ट्रीटाइजेज ऑफ गवर्नमेंट” में सहमति, प्रतिरोध और सहनशीलता पर उनके विचार स्पष्ट रूप से मिलते हैं।


सहमति (Consent):

लॉक के अनुसार, किसी सरकार की वैधता जनता की सहमति पर निर्भर करती है। उन्होंने ‘सामाजिक संविदा’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसमें व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का कुछ भाग सरकार को सौंपता है ताकि सुरक्षा और कानून-व्यवस्था सुनिश्चित हो सके। इस प्रकार सरकार की शक्ति जनता की सहमति से उत्पन्न होती है, न कि ईश्वर या परंपरा से।


प्रतिरोध (Resistance):

यदि सरकार अपने अनुबंध का उल्लंघन करती है, अर्थात् नागरिकों के जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति की रक्षा करने में असफल होती है, तो नागरिकों को सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार है। लॉक का यह विचार 17वीं शताब्दी में राजशाही के विरुद्ध जन प्रतिरोध के वैचारिक आधार के रूप में सामने आया।


सहनशीलता (Tolerance):

लॉक ने धार्मिक सहिष्णुता की वकालत की। उनका मानना था कि राज्य को नागरिकों के धार्मिक विश्वासों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, जब तक वे सार्वजनिक व्यवस्था के लिए खतरा न बनें। उन्होंने ‘लेटर्स कंसर्निंग टॉलरेंस’ में धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का समर्थन किया।


निष्कर्ष:

लॉक के विचार आधुनिक लोकतंत्र की नींव हैं। उनकी सहमति की अवधारणा ने लोकतांत्रिक वैधता को सिद्धांत दिया, प्रतिरोध के अधिकार ने नागरिक स्वतंत्रता को सुदृढ़ किया और सहिष्णुता का विचार आज की बहुलतावादी समाज की मूल भावना है।

प्रश्न 5: नागरिक समाज की रूसो की समालोचना की व्याख्या कीजिए।


ज्याँ जाक रूसो (Jean-Jacques Rousseau) 18वीं सदी के एक प्रभावशाली फ्रांसीसी चिंतक थे, जिन्होंने आधुनिक राजनीतिक विचारधारा, विशेषतः लोकतंत्र और समाज की नैतिक संरचना को गहराई से प्रभावित किया। रूसो की “The Social Contract” और “Discourse on the Origin of Inequality” में उन्होंने नागरिक समाज (Civil Society) की धारणा की गहन आलोचना की।





रूसो की नागरिक समाज की आलोचना:



  1. स्वाभाविक अवस्था बनाम नागरिक समाज:
    रूसो मानते थे कि प्रारंभिक मनुष्य स्वतंत्र, शांत और नैतिक रूप से श्रेष्ठ था। वह प्राकृतिक अवस्था (state of nature) में जी रहा था, जहाँ कोई औपचारिक सत्ता या संपत्ति नहीं थी। नागरिक समाज का उदय संपत्ति और असमानता के विकास के साथ हुआ, जिससे अन्याय, लोभ और दासता का आरंभ हुआ।
  2. संपत्ति का जन्म और सामाजिक विषमता:
    रूसो के अनुसार नागरिक समाज की नींव उस समय पड़ी जब किसी ने भूमि पर अधिकार कर कहा – “यह मेरी है” – और दूसरों ने उसे स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा, “संपत्ति का पहला दावा ही नागरिक समाज का पहला अपराध था।” इसने स्वामित्व आधारित वर्ग व्यवस्था और शोषण को जन्म दिया।
  3. नैतिक पतन और कृत्रिमता:
    रूसो के अनुसार नागरिक समाज ने मनुष्य को कृत्रिम जीवन, पाखंड और प्रतियोगिता में धकेल दिया। सामाजिक प्रतिष्ठा, सम्मान और संपत्ति की होड़ ने व्यक्ति को उसके स्वाभाविक गुणों से दूर कर दिया है।
  4. राज्य सत्ता और अधीनता:
    रूसो मानते थे कि नागरिक समाज में राज्य सत्ता एक ऐसा उपकरण बन गई है जो संपत्ति-संपन्न वर्ग के हितों की रक्षा करती है और गरीबों को नियंत्रण में रखती है। इस प्रकार राज्य, स्वतंत्रता के बजाय दासता का उपकरण बन गया।






समाधान के रूप में सामाजिक अनुबंध:



रूसो नागरिक समाज की आलोचना करते हुए एक वैकल्पिक व्यवस्था की ओर संकेत करते हैं – सामाजिक अनुबंध। उनके अनुसार, जब लोग अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं को ‘सामान्य इच्छा’ (General Will) के अधीन कर देते हैं, तो एक नैतिक और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना होती है। यह नागरिक समाज का पुनर्निर्माण है, जो स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों पर आधारित होता है।





निष्कर्ष:



रूसो की नागरिक समाज की आलोचना एक गहन नैतिक और सामाजिक चेतना से युक्त है। उन्होंने समाज की असमान संरचनाओं और नैतिक गिरावट की ओर ध्यान आकृष्ट किया और एक ऐसे समाज की कल्पना की जो समानता, स्वतंत्रता और नैतिकता पर आधारित हो। आज भी उनकी आलोचना वैश्विक पूंजीवाद, सामाजिक अन्याय और नैतिक क्षरण के संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक है।


प्रश्न 6: जेरेमी बेंथम के उपयोगितावादी सिद्धांतों की व्याख्या कीजिए



जेरेमी बेंथम (1748–1832) एक ब्रिटिश दार्शनिक और विधिशास्त्री थे, जिन्होंने उपयोगितावाद (Utilitarianism) के सिद्धांत को संस्थागत रूप से विकसित किया। उन्होंने नैतिकता, कानून और शासन के मूल्यों को मानव कल्याण के पैमाने पर परखने का प्रयास किया। उनका प्रसिद्ध सिद्धांत “अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख” (Greatest Happiness of the Greatest Number) पर आधारित था।


मुख्य तत्व:


  1. हेडोनिज्म (सुखवाद):
    बेंथम के अनुसार, सुख ही जीवन का अंतिम उद्देश्य है। हर मनुष्य स्वाभाविक रूप से सुख की खोज करता है और दुःख से बचना चाहता है।
  2. गणनात्मक उपयोगितावाद:
    बेंथम ने ‘हेडोनिक कैलकुलस’ (hedonic calculus) का विचार प्रस्तुत किया, जिसके तहत किसी कार्य के परिणामस्वरूप उत्पन्न सुख और दुःख को मापा जा सकता है। इसके सात आयाम थे: तीव्रता, अवधि, निश्चितता, समीपता, फलस्वरूप सुख, शुद्धता और संख्यात्मकता।
  3. नैतिक और कानूनी उपयोग:
    बेंथम ने तर्क दिया कि कानून और नीति निर्माण का उद्देश्य अधिकतम नागरिकों को अधिकतम सुख पहुँचाना होना चाहिए। इसी के आधार पर उन्होंने दंड विधान, जेल सुधार, और प्रशासनिक दक्षता की वकालत की।
  4. व्यवहारवाद और तटस्थता:
    उन्होंने नैतिकता को भावनात्मक या धार्मिक धारणाओं से मुक्त कर वैज्ञानिक पद्धति से समझने का प्रयास किया।



आलोचना:


बेंथम के सिद्धांत की आलोचना कई स्तरों पर हुई:


  • यह केवल मात्रा पर बल देता है, गुणात्मक अंतर की उपेक्षा करता है।
  • यह अल्पसंख्यकों के अधिकारों की अनदेखी कर सकता है, यदि बहुसंख्यक के सुख के लिए उनकी पीड़ा आवश्यक हो।
  • यह दीर्घकालिक नैतिक प्रभावों की तुलना में तात्कालिक सुख को अधिक महत्व देता है।



निष्कर्ष:


बेंथम का उपयोगितावाद आधुनिक नैतिक दर्शन और सार्वजनिक नीति के लिए क्रांतिकारी सिद्धांत रहा। यद्यपि उसकी सीमाएँ हैं, परंतु उसकी वैज्ञानिकता, व्यावहारिकता और लोकहित की भावना आज भी उसे प्रासंगिक बनाती है।





प्रश्न 7: जे.एस. मिल के कथन पर टिप्पणी कीजिए – “सुकरात असंतुष्ट होना एक मूर्ख संतुष्ट होने से बेहतर है।”



यह कथन जॉन स्टुअर्ट मिल के उपयोगितावादी दर्शन के गुणात्मक दृष्टिकोण को दर्शाता है। उन्होंने अपने गुरु जेरेमी बेंथम की मात्रात्मक उपयोगिता के स्थान पर गुणात्मक सुख की अवधारणा दी। उनके अनुसार सभी सुख एक जैसे नहीं होते, कुछ उच्च स्तर के होते हैं जो मानसिक, नैतिक और बौद्धिक विकास से संबंधित होते हैं।


इस कथन का विश्लेषण:


  1. सुख के प्रकार:
    मिल मानते हैं कि मानसिक और बौद्धिक सुख शारीरिक सुख से उच्चतर हैं। इसलिए, एक बुद्धिजीवी व्यक्ति यदि असंतुष्ट भी है, तो वह एक अज्ञानी व्यक्ति की संतुष्टि से अधिक श्रेष्ठ है।
  2. मूल्य का सिद्धांत:
    “मूर्ख संतुष्ट” का तात्पर्य केवल इंद्रिय सुखों तक सीमित व्यक्ति से है, जबकि “सुकरात असंतुष्ट” एक ऐसा व्यक्ति है जो उच्च स्तर की बौद्धिक और नैतिक चेतना रखता है, भले ही वह पूर्ण रूप से संतुष्ट न हो।
  3. व्यक्तित्व का विकास:
    मिल के अनुसार मानव जीवन का उद्देश्य केवल सुख प्राप्ति नहीं, बल्कि आत्म-विकास और उच्चतर चेतना की प्राप्ति है। इसलिए, असंतोष भी उस प्रक्रिया का हिस्सा है जो व्यक्ति को ऊँचा उठाता है।
  4. लोकतांत्रिक प्रभाव:
    यह विचार उस समय की सामूहिकतावादी प्रवृत्तियों के विरुद्ध एक व्यक्ति-केंद्रित दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जिसमें व्यक्ति की आत्मा और चेतना का महत्व सर्वोपरि होता है।



निष्कर्ष:


मिल का यह कथन उपयोगितावाद को एक नया आयाम देता है। यह हमें सिखाता है कि केवल अधिक सुख नहीं, बल्कि ‘श्रेष्ठ’ सुख का चुनाव ही नैतिक और बौद्धिक उन्नति की ओर ले जाता है। यह आज भी शिक्षा, नीति और नैतिकता के क्षेत्र में एक प्रेरणास्पद विचार है।





प्रश्न 8: लोकतंत्र और क्रांति पर टॉकविल के विचारों की चर्चा कीजिए



अलेक्सी डी टॉकविल एक फ्रांसीसी राजनीतिक चिंतक और समाजशास्त्री थे, जिनकी कृति “डेमोक्रेसी इन अमेरिका” लोकतंत्र की प्रकृति और उसकी क्रांतिकारी क्षमता का अद्भुत विश्लेषण प्रस्तुत करती है।


लोकतंत्र पर विचार:


  1. समानता की प्रवृत्ति:
    टॉकविल के अनुसार लोकतंत्र की आत्मा समानता की ओर अग्रसर होती है। उन्होंने अमेरिका में लोकतंत्र को देखा, जहाँ प्रत्येक नागरिक को राजनीतिक भागीदारी और सामाजिक समानता प्राप्त थी।
  2. व्यक्तिवाद और मध्यवर्ग:
    लोकतंत्र व्यक्तिगत स्वतंत्रता को जन्म देता है, किंतु यह व्यक्तिवाद और सामाजिक अलगाव को भी बढ़ावा दे सकता है। उन्होंने चेताया कि सरकार की शक्ति बढ़ती समानता के नाम पर अधिनायकवाद का रूप न ले ले।



क्रांति पर विचार:


  1. फ्रांसीसी क्रांति का विश्लेषण:
    टॉकविल ने कहा कि क्रांति केवल शासन परिवर्तन नहीं है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना में गहरे परिवर्तन का सूचक है। उन्होंने इसे ‘संस्थागत अस्थिरता’ का परिणाम माना।
  2. लोकतंत्र और क्रांति का संबंध:
    टॉकविल ने लोकतंत्र को क्रांति से उत्पन्न होते हुए देखा, पर यह भी कहा कि स्थायित्व के लिए लोकतंत्र को संस्थागत और नैतिक आधार चाहिए। अन्यथा, लोकतंत्र अराजकता और बहुसंख्यक तानाशाही में बदल सकता है।



निष्कर्ष:


टॉकविल ने लोकतंत्र की शक्ति और सीमाओं दोनों को पहचानते हुए उसे संतुलित दृष्टि से समझाया। उन्होंने लोकतंत्र को एक क्रांतिकारी ताकत माना, किंतु यह भी बताया कि यदि उसे सामाजिक पूंजी, न्याय और नैतिक चेतना के साथ न जोड़ा जाए तो वह आत्म-विनाशकारी हो सकता है।





प्रश्न 9: हेगल के इतिहास के दर्शन का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।



जॉर्ज विल्हेम फ्रेडरिक हेगल एक जर्मन विचारक थे जिन्होंने इतिहास को केवल घटनाओं की श्रृंखला न मानकर एक तात्विक प्रक्रिया के रूप में देखा। उनका ‘इतिहास का दर्शन’ (Philosophy of History) एक दूरदर्शी और जटिल दर्शन प्रस्तुत करता है।


मुख्य अवधारणाएँ:


  1. द्वंद्ववाद (Dialectics):
    हेगल के अनुसार, इतिहास एक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया है—थीसिस, एंटीथीसिस और सिंथीसिस। एक विचार उठता है (थीसिस), उसका विरोध होता है (एंटीथीसिस), और अंत में दोनों से एक नया विचार उत्पन्न होता है (सिंथीसिस)।
  2. विश्व आत्मा (World Spirit):
    हेगल मानते हैं कि इतिहास ‘विश्व आत्मा’ की आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया है। यह आत्मा धीरे-धीरे भौतिक घटनाओं के माध्यम से अपने को पहचानती है और अपनी स्वतंत्रता की ओर बढ़ती है।
  3. स्वतंत्रता का विकास:
    हेगल के अनुसार इतिहास स्वतंत्रता की प्रगति है। वह कहते हैं कि ‘प्राचीन विश्व में एक व्यक्ति स्वतंत्र था, रोमन काल में कुछ लोग स्वतंत्र थे, और आधुनिक काल में सभी स्वतंत्र होते जा रहे हैं।’



आलोचना:


  • हेगल के विचार अत्यंत अमूर्त हैं और उन्हें समझना कठिन है।
  • उन्होंने इतिहास को एक आदर्शवादी परिप्रेक्ष्य में देखा, जबकि यथार्थवादी विश्लेषण की उपेक्षा की।
  • उनके विचार यूरोपीय केन्द्रीयता और सांस्कृतिक श्रेष्ठता से ग्रसित प्रतीत होते हैं।



निष्कर्ष:


हेगल का इतिहास-दर्शन एक गहन और दार्शनिक विश्लेषण है, जिसमें इतिहास को आत्मा की यात्रा के रूप में देखा गया है। यद्यपि उनकी विधि जटिल और अमूर्त है, लेकिन यह आधुनिक ऐतिहासिक और सामाजिक सिद्धांतों के विकास में अत्यंत प्रभावशाली रही है।





प्रश्न 10: क्रांति पर मार्क्स के विचारों का परीक्षण कीजिए।



कार्ल मार्क्स ने क्रांति को इतिहास में परिवर्तन का केंद्रीय इंजन माना। उनका मानना था कि मानव इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है और प्रत्येक ऐतिहासिक युग की समाप्ति क्रांति के माध्यम से होती है।


मुख्य विचार:


  1. ऐतिहासिक भौतिकवाद:
    मार्क्स के अनुसार उत्पादन के साधनों में परिवर्तन सामाजिक संबंधों को बदलते हैं। जब शासक वर्ग (Bourgeoisie) और श्रमिक वर्ग (Proletariat) के बीच विरोध बढ़ता है, तो यह संघर्ष अंततः क्रांति में बदलता है।
  2. वर्ग संघर्ष:
    क्रांति एक वर्ग के हित में नहीं, बल्कि समस्त शोषित वर्ग के हित में होती है। वह पूँजीवाद को समाप्त कर समाजवादी व्यवस्था की स्थापना की ओर ले जाती है।
  3. क्रांति की अनिवार्यता:
    मार्क्स के अनुसार क्रांति अपरिहार्य है, क्योंकि पूँजीवाद अंततः अपने ही अंतर्विरोधों के कारण स्वयं को समाप्त कर देता है।
  4. ध्वंस और नव निर्माण:
    क्रांति केवल पुरानी व्यवस्था को नष्ट नहीं करती, बल्कि नई व्यवस्था—श्रमिकों का राज्य (Dictatorship of Proletariat)—का निर्माण करती है।



आलोचना:


  • मार्क्स की क्रांति की अनिवार्यता की धारणा कई बार यथार्थ से मेल नहीं खाती।
  • यह हिंसात्मक परिवर्तन को वैधता प्रदान करती है, जिससे लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को खतरा हो सकता है।
  • यह आर्थिक निर्धारणवाद पर अत्यधिक निर्भर है, जबकि अन्य सामाजिक, सांस्कृतिक पहलुओं की उपेक्षा करती है।



निष्कर्ष:


मार्क्स की क्रांति की अवधारणा ने 20वीं सदी की राजनीति को गहराई से प्रभावित किया। यद्यपि आज की दुनिया में इसकी सीमाएँ स्पष्ट हैं, फिर भी यह विचार आज भी शोषण और असमानता के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा प्रदान करता है।

प्रश्न 11: पश्चिमी राजनीतिक चिंतन के स्वरूप और प्रकरण पर एक निबंध लिखिए


परिचय:

पश्चिमी राजनीतिक चिंतन (Western Political Thought) विश्व के राजनीतिक दर्शन का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह चिंतन परंपरा प्राचीन यूनानी दार्शनिकों से आरंभ होकर आधुनिक विचारकों तक विस्तृत है। इसका स्वरूप समय, स्थान, समाज और राजनीतिक परिवर्तनों के साथ बदलता रहा है। इस चिंतन ने सत्ता, राज्य, न्याय, स्वतंत्रता, समानता, अधिकार, क्रांति, समाज और सरकार जैसे विषयों को दार्शनिक दृष्टिकोण से विश्लेषित किया।





पश्चिमी राजनीतिक चिंतन का स्वरूप:



  1. दार्शनिक आधार:
    प्लेटो, अरस्तु, थॉमस एक्विनास, ह्यूम, लॉक, कांट, हेगेल आदि चिंतकों ने राजनीति को नैतिकता, धर्म और तर्क के साथ जोड़ते हुए गंभीर दार्शनिक विमर्श दिया।
  2. व्यवस्थित विकास:
    यह चिंतन एक सतत विकासशील प्रक्रिया रही है – प्लेटो व अरस्तु से लेकर आधुनिक विचारकों जैसे बेंथम, मिल, मार्क्स और रॉल्स तक। हर युग में इसने समकालीन समस्याओं को संबोधित किया।
  3. व्यक्तिवाद से सामूहिकता तक:
    प्रारंभिक चिंतन में व्यक्ति की स्वतंत्रता, अधिकार, और नैतिकता प्रमुख रही, जबकि आधुनिक युग में सामाजिक समानता, क्रांति और राज्य की भूमिका पर बल दिया गया।
  4. न्याय और सत्ता का केंद्रबिंदु:
    पश्चिमी चिंतन में न्याय की अवधारणा और सत्ता की वैधता (Legitimacy) पर विस्तृत विमर्श हुआ। प्लेटो का न्याय का आदर्श रूप, हॉब्स का संप्रभुता सिद्धांत, और लॉक की सहमति आधारित सरकार इस दिशा में उल्लेखनीय हैं।






प्रकरण (Issues) :



  1. राज्य की उत्पत्ति और उद्देश्य – जैसे हॉब्स, लॉक और रूसो द्वारा सामाजिक संविदा का सिद्धांत।
  2. संपत्ति और वर्गभेद – जैसे रूसो, मार्क्स की आलोचनात्मक दृष्टि।
  3. लोकतंत्र और प्रतिनिधित्व – मिल और टॉकविल जैसे चिंतकों की राय।
  4. नारीवाद, उपनिवेशवाद और नस्लवाद – आधुनिक काल में इन विषयों पर भी विमर्श हुआ है।
  5. नैतिकता और राजनीति का संबंध – अरस्तु और कांट जैसे चिंतकों का योगदान।






निष्कर्ष:



पश्चिमी राजनीतिक चिंतन केवल राजनीतिक संस्थाओं का ही नहीं, बल्कि व्यापक सामाजिक, नैतिक और दार्शनिक विमर्श का हिस्सा रहा है। इसने आधुनिक लोकतंत्र, मानवाधिकार और न्याय की अवधारणाओं को गहराई दी। भारत सहित कई लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की आधारशिला भी इस चिंतन पर टिकी है, जिससे इसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।

प्रश्न 12: प्लेटो की आदर्श राज्य के सिद्धांत का तुलनात्मक परीक्षण कीजिए।


परिचय:

प्लेटो (Plato) पश्चिमी राजनीतिक चिंतन के जनक माने जाते हैं। उन्होंने अपनी कृति ‘The Republic’ में आदर्श राज्य की परिकल्पना प्रस्तुत की। उनका राज्य दर्शन न्याय, तर्क और नैतिकता पर आधारित है। प्लेटो का आदर्श राज्य तीन वर्गों – शासक, रक्षक और उत्पादक – पर आधारित है, जिसमें प्रत्येक वर्ग का कार्य निर्धारित है और ‘न्याय’ तब संभव है जब हर वर्ग अपना कार्य बिना हस्तक्षेप के करता है।





आदर्श राज्य की विशेषताएँ:



  1. ज्ञान आधारित नेतृत्व:
    शासक वर्ग ‘दार्शनिक राजा’ होगा, जो ज्ञान और न्याय के सिद्धांतों के अनुसार शासन करेगा।
  2. तीन वर्गों की व्यवस्था:
    • दार्शनिक राजा (शासक): ज्ञान और तर्क में पारंगत।
    • सैनिक (रक्षक): साहस और सुरक्षा के लिए।
    • श्रमिक (उत्पादक): उत्पादन और सेवा के लिए।

  3. सामूहिक संपत्ति और परिवार:
    शासक वर्ग में निजी संपत्ति और परिवार की अनुमति नहीं, जिससे पक्षपात और लालच से बचा जा सके।
  4. न्याय की अवधारणा:
    जब हर वर्ग अपना कार्य करता है और किसी अन्य वर्ग के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता, तो वही न्याय है।






तुलनात्मक परीक्षण:


मापदंड प्लेटो का आदर्श राज्य आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य
शासन व्यवस्था ज्ञान आधारित अभिजात शासन जन-आधारित प्रतिनिधित्व
स्वतंत्रता व्यक्तिगत स्वतंत्रता सीमित नागरिक अधिकारों की व्यापक गारंटी
संपत्ति शासक वर्ग में निजी संपत्ति का निषेध संपत्ति का अधिकार वैध
राजनीतिक भागीदारी केवल योग्य दार्शनिक ही शासक सार्वभौमिक मताधिकार
सामाजिक गतिशीलता सीमित, शिक्षा के आधार पर वर्ग परिवर्तन अधिक लचीली और खुली व्यवस्था





आलोचना:



  • सत्तावाद का खतरा: दार्शनिक राजा की निरंकुशता की संभावना।
  • स्वतंत्रता की उपेक्षा: व्यक्तियों की स्वतंत्रता और इच्छा की अनदेखी।
  • आदर्श का अव्यावहारिकपन: यह मॉडल व्यवहार में लागू कर पाना अत्यंत कठिन है।






निष्कर्ष:



प्लेटो का आदर्श राज्य दर्शनात्मक रूप से श्रेष्ठ और नैतिकता पर आधारित है, लेकिन व्यावहारिक रूप से इसकी आलोचना हुई है। आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ जहां अधिक व्यावहारिक हैं, वहीं प्लेटो का आदर्श राज्य न्याय और नैतिकता के उच्च आदर्शों की ओर संकेत करता है। उसका तुलनात्मक अध्ययन आज भी राजनीतिक दर्शन के लिए मूल्यवान है।



प्रश्न 13: मैक्यावली के सरकार के प्रारूपों के वर्गीकरण का परीक्षण कीजिए।


परिचय:

निकोलो मैक्यावली (Niccolò Machiavelli) पुनर्जागरण काल के एक प्रमुख राजनीतिक चिंतक थे, जिन्हें आधुनिक राजनीतिक यथार्थवाद का जनक माना जाता है। अपनी कृति ‘The Prince’ और ‘Discourses on Livy’ में उन्होंने राजनीति को नैतिकता से पृथक कर सत्ता, शक्ति और रणनीति के आधार पर व्याख्यायित किया।





सरकार के प्रारूपों का वर्गीकरण:



मैक्यावली ने सरकार के दो प्रमुख प्रारूपों की बात की:


  1. राजतंत्र (Monarchy):
    जहाँ संपूर्ण सत्ता एक व्यक्ति के हाथों में हो।
    • लाभ: निर्णय लेने में तेजी, स्थायित्व।
    • हानि: निरंकुशता और उत्तराधिकार संकट।

  2. गणराज्य (Republic):
    जहाँ नागरिकों को भागीदारी का अधिकार हो, और सत्ता विभाजित हो।
    • लाभ: स्वतंत्रता, सहभागिता और उत्तरदायित्व।
    • हानि: धीमी निर्णय प्रक्रिया, आंतरिक संघर्ष।



मैक्यावली का मानना था कि स्थायित्व और प्रभावशीलता के लिए एक शक्तिशाली नेतृत्व आवश्यक है, किंतु जनहित की अनदेखी नहीं होनी चाहिए। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि सरकारें परिस्थितियों के अनुसार बदल सकती हैं और एक प्रणाली सदा उपयुक्त नहीं हो सकती।


विशेषताएँ और मूल्यांकन:


  1. व्यावहारिक दृष्टिकोण:
    मैक्यावली ने आदर्श की अपेक्षा यथार्थ पर बल दिया। उनका ध्यान सत्ता की प्राप्ति और सुरक्षा पर केंद्रित था।
  2. राजनीति और नैतिकता का पृथक्करण:
    उन्होंने कहा कि राजनीति को नैतिकता के बजाय व्यावहारिकता से संचालित किया जाना चाहिए – “उद्देश्य साधनों को सही ठहराता है।”
  3. नवीनता और प्रभाव:
    उन्होंने सरकारों की स्थायित्व पर गहन विचार किया और यह बताया कि अच्छे संस्थानों और कानूनों से एक गणराज्य दीर्घकालीन हो सकता है।



निष्कर्ष:


मैक्यावली का सरकार के प्रारूपों का वर्गीकरण विशुद्ध यथार्थवादी था। उन्होंने न तो एकदम राजतंत्र का समर्थन किया और न ही केवल गणराज्य का, बल्कि परिस्थितियों और शक्ति संरचना के आधार पर दोनों की उपयोगिता मानी। उनके विचार आज भी राजनीतिक रणनीति, कूटनीति और शासन प्रणाली के अध्ययन में प्रासंगिक हैं।


प्रश्न 14: जॉन लॉक की ‘कथन’ – “सरकार जबकि सभी मामलों में होती है, विधानमंडल सर्वोच्च (सर्वोच्च) शक्ति है” – पर चर्चा कीजिए।



परिचय:

जॉन लॉक (John Locke) सामाजिक संविदा सिद्धांत के प्रमुख विचारक थे। उनकी कृति ‘Two Treatises of Government’ में उन्होंने सरकार, समाज और सत्ता के संबंध को स्पष्ट किया। उनके अनुसार, राज्य मानव के प्राकृतिक अधिकारों – जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति – की रक्षा हेतु बना है। उनके अनुसार, विधानमंडल सरकार की सर्वोच्च संस्था है क्योंकि वह जनता की संप्रभु इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है।




मुख्य विचार:


  1. विधानमंडल सर्वोच्च क्यों?
    • लॉक के अनुसार सरकार की सभी शाखाएँ (कार्यपालिका, न्यायपालिका आदि) विधानमंडल के अधीन हैं, क्योंकि यही वह संस्था है जो जनता की सहमति से कार्य करती है।
    • यह कानून बनाती है और नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करती है।

  2. सीमित सरकार का सिद्धांत:
    लॉक सत्ता के विकेंद्रीकरण और नियंत्रण के पक्षधर थे। विधानमंडल सर्वोच्च होते हुए भी वह भी संविधान और प्राकृतिक अधिकारों के अधीन है। यह निरंकुश नहीं हो सकता।
  3. प्रशासनिक शाखा की भूमिका:
    लॉक ने कार्यपालिका को भी महत्वपूर्ण माना, किंतु यह केवल विधानमंडल के निर्णयों को लागू करने का माध्यम है।
  4. न्यायपालिका की भूमिका:
    यह नागरिकों और सरकार के बीच विवाद सुलझाने का कार्य करती है, लेकिन कानून के अनुसार।





निष्कर्ष:

लॉक का विचार आधुनिक लोकतंत्र का आधार है, जहाँ विधानमंडल जनता की इच्छा का प्रतीक है। यह विचार शक्ति के संतुलन और उत्तरदायित्व की भावना को स्थापित करता है, जिससे शासन अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनता है।





प्रश्न 15: रूसो की सामान्य इच्छा की अवधारणा का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।



परिचय:

रूसो (Jean-Jacques Rousseau) सामाजिक संविदा के प्रवर्तकों में से एक थे। उन्होंने ‘The Social Contract’ में ‘सामान्य इच्छा’ (General Will) की संकल्पना दी। उनके अनुसार, सामान्य इच्छा वह सामूहिक नैतिक इच्छा है जो सार्वजनिक भलाई की ओर उन्मुख होती है, और जो समाज के सभी सदस्यों की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करती है।




मुख्य तत्व:


  1. सामूहिक चेतना:
    सामान्य इच्छा संपूर्ण समाज की नैतिक और सामूहिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती है।
  2. निजी इच्छा से भिन्न:
    यह किसी व्यक्ति या वर्ग की स्वार्थपरक इच्छाओं से भिन्न होती है।
  3. लोकहित का प्रतिनिधित्व:
    सामान्य इच्छा वह मार्ग है जिससे राज्य लोककल्याण को सुनिश्चित करता है।





आलोचना:


  1. दमनकारी प्रवृत्ति:
    कुछ आलोचकों के अनुसार, सामान्य इच्छा के नाम पर अल्पसंख्यकों की राय का दमन हो सकता है।
    “Man is forced to be free” जैसी अवधारणाएँ व्यक्तिवादी अधिकारों को चुनौती देती हैं।
  2. व्यवहारिक कठिनाइयाँ:
    आम जनता की ‘सच्ची’ सामान्य इच्छा को परिभाषित करना अत्यंत कठिन है। यह शासक वर्ग द्वारा मनमानी व्याख्या का माध्यम बन सकती है।
  3. लोकतंत्र पर प्रभाव:
    सामान्य इच्छा को ‘निर्दोष’ मानने से लोकतांत्रिक बहुलता और विविधता की अनदेखी होती है।





निष्कर्ष:

रूसो की सामान्य इच्छा का सिद्धांत लोककल्याण की एक आदर्श अवधारणा है, लेकिन व्यवहार में यह तानाशाही का रूप भी ले सकता है। आधुनिक लोकतंत्र इस सिद्धांत को सीमित करके, बहुलतावादी प्रणाली में शामिल करता है।





प्रश्न 16: बर्क की प्राकृतिक अधिकार के आलोचना को समझाइये।



परिचय:

एडमंड बर्क (Edmund Burke) एक रूढ़िवादी राजनीतिक चिंतक थे, जो फ्रांसीसी क्रांति के कटु आलोचक थे। उन्होंने थॉमस पेन और क्रांतिकारियों द्वारा प्रतिपादित ‘प्राकृतिक अधिकारों’ की धारणा को खारिज किया। उन्होंने ‘Reflections on the Revolution in France’ में इसका गहन विरोध किया।




मुख्य विचार:


  1. ऐतिहासिकता और परंपरा का पक्ष:
    बर्क का मानना था कि अधिकार समाज की ऐतिहासिक प्रक्रिया, परंपराओं और संस्थाओं के माध्यम से निर्मित होते हैं, न कि किसी आदर्श ‘प्राकृतिक स्थिति’ से।
  2. व्यवस्था का महत्व:
    उनका मानना था कि अधिकार केवल संविधान और विधि व्यवस्था के अंतर्गत ही सुरक्षित रहते हैं।
  3. प्राकृतिक अधिकारों की अनिश्चितता:
    बर्क ने कहा कि प्राकृतिक अधिकारों की कोई सुनिश्चित और व्यवहारिक परिभाषा नहीं है, जिससे अराजकता उत्पन्न हो सकती है।





आलोचना:

बर्क के विचार आधुनिक मानवाधिकार की धारणा से भिन्न हैं। परंतु उनका तर्क यह भी है कि बिना संस्थागत सुरक्षा के कोई अधिकार व्यर्थ हैं।




निष्कर्ष:

बर्क की आलोचना परंपरागत संस्थाओं की रक्षा में थी। वे मानते थे कि अधिकारों को स्थायित्व और संतुलन की आवश्यकता होती है, केवल क्रांतिकारी नारों से समाज नहीं बदलता।





प्रश्न 17: सामाजिक संविदा और राज्य पर इमैनुएल कांट के विचारों का परीक्षण कीजिए।



परिचय:

इमैनुएल कांट (Immanuel Kant) एक आदर्शवादी दार्शनिक थे जिन्होंने नैतिकता, स्वतंत्रता और तर्क को राजनीति से जोड़ा। उन्होंने सामाजिक संविदा को राज्य के नैतिक आधार के रूप में देखा, न कि ऐतिहासिक घटना के रूप में।




मुख्य विचार:


  1. सामाजिक संविदा = नैतिक आदर्श:
    कांट के अनुसार, सामाजिक संविदा एक आदर्श विचार है जो दर्शाता है कि राज्य न्याय और तर्क पर आधारित होना चाहिए।
  2. व्यक्ति की स्वायत्तता:
    कांट व्यक्ति को स्वायत्त नैतिक इकाई मानते हैं, इसलिए राज्य की वैधता इस पर आधारित होती है कि वह व्यक्ति की नैतिक स्वतंत्रता को कैसे संरक्षित करता है।
  3. राज्य = नैतिक आदेश:
    राज्य केवल शक्ति नहीं, बल्कि नैतिक विधायन की संस्था है।





निष्कर्ष:

कांट का सामाजिक संविदा का दृष्टिकोण राजनीतिक नैतिकता को केंद्र में रखता है। यह विचार आधुनिक लोकतंत्र के संवैधानिक मूल्यों के अत्यंत निकट है।





प्रश्न 18: टॉकविल के राजनीतिक सिद्धांत के संदर्भ में राजनीति में धर्म की महत्ता का परिप्रेक्ष्य कीजिए।



परिचय:

अलेक्ज़ांद्र डी टॉकविल (Alexis de Tocqueville) ने अमेरिका की लोकतांत्रिक संस्कृति का अध्ययन अपनी कृति ‘Democracy in America’ में किया। उन्होंने धर्म को अमेरिकी लोकतंत्र का नैतिक आधार बताया।




धर्म की राजनीति में भूमिका (टॉकविल के अनुसार):


  1. नैतिक अनुशासन का स्रोत:
    धर्म नागरिकों में नैतिक जिम्मेदारी, आत्मसंयम और अनुशासन उत्पन्न करता है।
  2. स्वतंत्रता को संतुलित करता है:
    धर्म व्यक्ति को सीमाओं का बोध कराता है और अराजक स्वतंत्रता से बचाता है।
  3. लोकतंत्र की स्थिरता में योगदान:
    टॉकविल के अनुसार, अमेरिका में धर्म ने लोकतंत्र को स्थायित्व प्रदान किया क्योंकि यह समाज को एकजुट करता है।





निष्कर्ष:

टॉकविल ने धर्म को राजनीति का सीधा हिस्सा नहीं माना, परंतु इसे लोकतंत्र की सामाजिक नींव के रूप में देखा। उनके अनुसार, धर्म और स्वतंत्रता परस्पर विरोधी नहीं बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं।





प्रश्न 19: जे.एस. मिल के उपयोगितावाद की राय पर एक लेख लिखिए।



परिचय:

जॉन स्टुअर्ट मिल (J.S. Mill) उपयोगितावाद (Utilitarianism) के प्रमुख प्रवर्तक थे। उन्होंने अपने पिता जेम्स मिल और जेरेमी बेंथम के उपयोगितावाद को नैतिक और गुणात्मक आधार पर विस्तारित किया।




मुख्य सिद्धांत:


  1. अधिकतम सुख का सिद्धांत:
    मिल के अनुसार, नैतिक क्रियाएं वे हैं जो अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख देती हैं।
  2. गुणात्मक अंतर:
    उन्होंने बेंथम के मात्रात्मक उपयोगितावाद की आलोचना करते हुए कहा कि कुछ सुख (जैसे बौद्धिक सुख) अन्य की अपेक्षा श्रेष्ठ होते हैं।
    “It is better to be a Socrates dissatisfied than a fool satisfied.”
  3. व्यक्तिगत स्वतंत्रता:
    मिल ने ‘On Liberty’ में कहा कि व्यक्ति की स्वतंत्रता तब तक सीमित नहीं की जानी चाहिए जब तक वह दूसरों को हानि नहीं पहुँचा रहा।





निष्कर्ष:

मिल का उपयोगितावाद सामाजिक न्याय, स्वतंत्रता और नीति निर्माण के लिए आज भी मार्गदर्शक है। उन्होंने सुख को केवल भौतिक नहीं, बल्कि नैतिक और बौद्धिक संतोष से भी जोड़ा।





प्रश्न 20: निम्नलिखित पर संक्षिप्त में लेख लिखिए:



(क) हेगेल की द्वंद्ववाद सिद्धांत:

हेगेल के अनुसार, विचार (Idea) का विकास द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के तहत होता है – थीसिस, एंटीथीसिस और संश्लेषण। यह केवल तर्क प्रक्रिया नहीं बल्कि ऐतिहासिक विकास का नियम है, जिससे राज्य और चेतना का विकास होता है। यह मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का दार्शनिक आधार बना।


(ख) मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य (Surplus Value):

मार्क्स के अनुसार, पूंजीपति श्रमिक से जितना श्रम करवाते हैं, उसका मूल्य (Labour Value) उससे अधिक होता है जो उसे मजदूरी में देते हैं। इस शेष मूल्य को ही ‘अतिरिक्त मूल्य’ कहा गया। यही पूंजीवाद में शोषण का मूल आधार है।


प्रश्न 21: इस कथन का परीक्षण कीजिए कि “पश्चिमी राजनीतिक चिंतन व्यापक रूप से राजनीतिक संस्थाओं और उनसे संबंधित प्रक्रियाओं से संबंधित है।”



परिचय:

पश्चिमी राजनीतिक चिंतन (Western Political Thought) का विकास यूनान से लेकर आधुनिक यूरोप तक विभिन्न युगों में हुआ है। इसकी विशेषता यह है कि इस चिंतन ने केवल राजनीतिक आदर्शों (जैसे न्याय, स्वतंत्रता, समानता) को नहीं, बल्कि उन्हें लागू करने वाली संस्थाओं और प्रक्रियाओं पर भी गहन विमर्श किया है।




मुख्य विश्लेषण:


  1. संस्थाओं की अवधारणा का विकास:
    प्लेटो और अरस्तु से लेकर लॉक, रूसो, मिल और मार्क्स तक सभी विचारकों ने सरकार, संसद, न्यायालय, राज्य और नागरिक समाज जैसी संस्थाओं की भूमिका को स्पष्ट किया है।
  2. राजनीतिक प्रक्रियाओं पर ध्यान:
    • चुनाव, प्रतिनिधित्व, सत्ता का हस्तांतरण, विधायिका-कार्यपालिका संबंध, अधिकारों की रक्षा जैसे विषय इस चिंतन का हिस्सा रहे हैं।
    • टॉकविल, लॉक और जे.एस. मिल जैसे चिंतकों ने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की व्याख्या की।

  3. सत्ता और उत्तरदायित्व:
    पश्चिमी चिंतन में यह लगातार प्रश्न उठता रहा कि सत्ता किसे मिले, कैसे नियंत्रित हो, और जनता को कैसे उत्तरदायी बने।
  4. प्रशासनिक ढाँचे:
    मैकियावेली, हॉब्स और हेगेल जैसे विचारकों ने राज्य की संस्था और उसके ढांचे को लेकर व्यवहारिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।





निष्कर्ष:

पश्चिमी राजनीतिक चिंतन केवल आदर्शवाद तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उसने राजनीतिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं की संरचना, संचालन और आलोचना पर भी गहरा प्रभाव डाला है। इस दृष्टि से यह चिंतन आधुनिक राज्य व्यवस्था की नींव है।





प्रश्न 22: प्लेटो के आदर्श राज्य की संकल्पना का वर्णन और मूल्यांकन कीजिए।



परिचय:

प्लेटो (Plato) पश्चिमी राजनीतिक दर्शन के जनक माने जाते हैं। उनकी कृति The Republic में उन्होंने आदर्श राज्य की संकल्पना प्रस्तुत की, जिसका उद्देश्य “न्याय” की स्थापना है।




मुख्य विशेषताएँ:


  1. राज्य के वर्गीकरण:
    प्लेटो ने समाज को तीन वर्गों में बाँटा – शासक (दार्शनिक), सैनिक (रक्षक), और उत्पादक वर्ग। प्रत्येक वर्ग का कार्य विभाजित है।
  2. दार्शनिक राजा:
    प्लेटो के अनुसार आदर्श राज्य का शासक दार्शनिक होना चाहिए, क्योंकि केवल वही ‘सत्य’ और ‘न्याय’ को समझ सकता है।
  3. नारी समानता:
    उन्होंने पुरुषों और महिलाओं के बीच राजनीतिक योग्यता में समानता की बात की।
  4. शिक्षा का महत्व:
    प्लेटो के राज्य में शिक्षा सर्वोपरि है, जो नागरिकों को अपने कार्य के अनुसार प्रशिक्षित करती है।





आलोचना:


  1. अति आदर्शवाद:
    प्लेटो का आदर्श राज्य व्यवहारिक जीवन से दूर प्रतीत होता है।
  2. स्वतंत्रता का अभाव:
    व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक चुनाव जैसी आधुनिक अवधारणाएँ उसमें नहीं थीं।
  3. अधिनायकवाद की आशंका:
    सत्ता केवल एक वर्ग (दार्शनिकों) को देना लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध है।





निष्कर्ष:

प्लेटो का आदर्श राज्य दर्शन और न्याय की संकल्पना को केंद्र में रखता है, परंतु उसकी व्यावहारिकता सीमित है। फिर भी, उसने राजनीति को नैतिकता से जोड़ने का महान प्रयास किया।





प्रश्न 23: चर्च और राज्य के बीच संबंध के सेंट थॉमस एक्विनास के विचारों की व्याख्या कीजिए।



परिचय:

सेंट थॉमस एक्विनास (St. Thomas Aquinas) मध्ययुगीन ईसाई चिंतक थे। उन्होंने धर्म और राजनीति के संबंधों को समन्वयवादी दृष्टिकोण से देखा। उनकी कृति Summa Theologica में चर्च और राज्य के संबंधों की व्याख्या की गई है।




मुख्य विचार:


  1. दो शक्तियाँ – धार्मिक और सांसारिक:
    एक्विनास ने पाप का मोचन (salvation) चर्च के माध्यम से और भौतिक जीवन का संचालन राज्य के माध्यम से संभव माना।
  2. राज्य की वैधता:
    उन्होंने अरस्तु से प्रभावित होकर राज्य को प्राकृतिक और आवश्यक संस्था माना, परंतु इसकी वैधता ईश्वर की इच्छा और नैतिक नियमों से बंधी है।
  3. चर्च की सर्वोच्चता:
    धर्म राज्य से ऊपर है, क्योंकि आत्मा का मोचन शरीर से श्रेष्ठ है। अतः धार्मिक नैतिकता राज्य को मार्गदर्शन देती है।





निष्कर्ष:

एक्विनास ने धर्म और राजनीति को एक-दूसरे के पूरक रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने राज्य को नैतिक नियमों के अधीन मानकर चर्च की सर्वोच्च भूमिका को रेखांकित किया, जो मध्यकालीन ईसाई शासन की वैचारिक नींव बना।





प्रश्न 24: मैकियावेली द्वारा सरकार के विभिन्न रूपों के वर्गीकरण के आधारों का मूल्यांकन कीजिए।



परिचय:

निकोलो मैकियावेली (Niccolò Machiavelli) पुनर्जागरण युग के यथार्थवादी राजनीतिक चिंतक थे। उन्होंने The Prince और Discourses on Livy में सरकारों के विभिन्न रूपों का उल्लेख किया और उनके व्यवहारिक मूल्यांकन पर बल दिया।




वर्गीकरण के आधार:


  1. राजशाही (Monarchy):
    जहाँ सत्ता एक शासक के पास होती है। इसमें स्थायित्व होता है पर तानाशाही की संभावना रहती है।
  2. गणराज्य (Republic):
    जहाँ सत्ता जनता या उनके प्रतिनिधियों में निहित होती है। यह स्वतंत्रता को बढ़ावा देता है।
  3. धोखेबाज़ी और शक्ति का यथार्थ:
    मैकियावेली के अनुसार, शासक को सत्ता बनाए रखने हेतु छल, कपट और बल प्रयोग से भी परहेज़ नहीं करना चाहिए।





विश्लेषण:


  • मैकियावेली का वर्गीकरण केवल आदर्शों पर नहीं, बल्कि सत्ता की वास्तविक प्रकृति पर आधारित है।
  • उन्होंने यह भी बताया कि किस परिस्थिति में कौन-सी व्यवस्था टिकाऊ होती है।





निष्कर्ष:

मैकियावेली का वर्गीकरण व्यवहारिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण पर आधारित था। उन्होंने नैतिकता की बजाय राजनीतिक स्थायित्व और कुशल शासन पर बल दिया, जो आधुनिक यथार्थवादी राजनीति की नींव बना।





प्रश्न 25: थॉमस हॉब्स के सामाजिक संविदा में Obligation (कर्तव्य) पर एक निबंध लिखिए।



परिचय:

थॉमस हॉब्स (Thomas Hobbes) ने Leviathan में सामाजिक संविदा के माध्यम से राज्य की उत्पत्ति को व्याख्यायित किया। उनके अनुसार, प्राकृतिक अवस्था में जीवन “nasty, brutish and short” होता है, जिससे बचने के लिए व्यक्ति एक सर्वसत्तावादी राज्य (Leviathan) को सत्ता सौंपते हैं।




Obligation का स्वरूप:


  1. राज्य के प्रति पूर्ण कर्तव्य:
    संविदा के बाद नागरिकों का यह नैतिक और कानूनी कर्तव्य बनता है कि वे राज्य के आदेशों का पालन करें।
  2. प्रशासन की निरंकुशता:
    हॉब्स के अनुसार राज्य की सत्ता पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता क्योंकि यही अराजकता से सुरक्षा प्रदान करता है।
  3. कर्तव्य का मूल उद्देश्य:
    लोगों का कर्तव्य केवल इसलिए नहीं है कि राज्य शक्तिशाली है, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने स्वेच्छा से राज्य को अधिकार सौंपे हैं।





आलोचना:


  • हॉब्स का विचार व्यक्तिगत स्वतंत्रता की कीमत पर स्थायित्व की रक्षा करता है।
  • उनके Obligation की अवधारणा में प्रतिरोध का कोई स्थान नहीं है।





निष्कर्ष:

हॉब्स के विचार राज्य के प्रति पूर्ण निष्ठा और अनुशासन को बढ़ावा देते हैं। उनकी Obligation की धारणा शांति और व्यवस्था की रक्षा करती है, परंतु व्यक्तिगत अधिकारों की बलि चढ़ा सकती है।


प्रश्न 26: नागरिकता और लोकतंत्र पर बर्क के विचारों का विश्लेषण कीजिए।



परिचय:

एडमंड बर्क (Edmund Burke) 18वीं शताब्दी के एक रूढ़िवादी विचारक थे, जिन्होंने फ्रांसीसी क्रांति का विरोध करते हुए “विकासशील लोकतंत्र” और “जिम्मेदार नागरिकता” की वकालत की। उन्होंने सामाजिक निरंतरता और परंपरा को लोकतांत्रिक स्थायित्व का आधार माना।




बर्क की नागरिकता पर अवधारणा:


  1. परंपरा और उत्तरदायित्व:
    नागरिकता केवल अधिकारों का दावा नहीं, बल्कि ऐतिहासिक और नैतिक उत्तरदायित्व भी है।
    उन्होंने कहा कि नागरिकों को अपने पूर्वजों की परंपरा, संस्कृति और संस्थाओं का सम्मान करना चाहिए।
  2. आलोचना का विवेकपूर्ण प्रयोग:
    बर्क के अनुसार नागरिकों को सरकार की आलोचना करने का अधिकार है, लेकिन यह अधिकार विवेक और सीमाओं के भीतर रहना चाहिए।





लोकतंत्र पर बर्क के विचार:


  1. प्रतिनिधित्व का सिद्धांत:
    बर्क प्रतिनिधियों को “न्यायपूर्ण बुद्धिजीवी” मानते थे जो केवल मतदाताओं की इच्छाओं के अनुसार नहीं, बल्कि राष्ट्रहित के अनुसार निर्णय लें।
  2. अंध क्रांति का विरोध:
    उन्होंने फ्रांसीसी क्रांति की आलोचना यह कहकर की कि यह लोकतंत्र के नाम पर अराजकता और हिंसा फैला रही थी।
  3. संवैधानिक सुधारवाद:
    वे त्वरित और कट्टर परिवर्तनों के बजाय क्रमिक सुधारों के पक्षधर थे।





निष्कर्ष:

बर्क की दृष्टि में नागरिकता और लोकतंत्र परंपरा, उत्तरदायित्व, विवेक और संस्थागत संतुलन से पोषित होते हैं। उन्होंने चेताया कि यदि नागरिकता अधिकारों की अराजक मांग बन जाए और लोकतंत्र संस्था-विरोधी बन जाए, तो समाज का संतुलन नष्ट हो सकता है।





प्रश्न 27: रूसो के सामान्य इच्छा के सिद्धांत का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।



परिचय:

ज्यां जैक रूसो (Jean Jacques Rousseau) की The Social Contract में “सामान्य इच्छा” (General Will) की अवधारणा केंद्रीय है। उनके अनुसार राज्य का उद्देश्य जनता की सामूहिक इच्छा के अनुसार चलना चाहिए, जो उनके दीर्घकालिक हितों का प्रतिनिधित्व करती है।




मुख्य अवधारणा:


  1. व्यक्तिगत इच्छा बनाम सामान्य इच्छा:
    सामान्य इच्छा व्यक्तियों की निजी इच्छाओं से भिन्न है। यह वह सामूहिक दृष्टिकोण है जो समाज के समग्र भले को दर्शाता है।
  2. जन-समाज की भागीदारी:
    रूसो ने प्रत्यक्ष लोकतंत्र की वकालत की, जहाँ हर नागरिक सामान्य इच्छा की प्रक्रिया में भाग लेता है।





आलोचना:


  1. अस्पष्टता:
    सामान्य इच्छा को पहचानना कठिन है। क्या यह बहुमत की राय है या नैतिक-आदर्श का प्रतिबिंब, यह स्पष्ट नहीं।
  2. तानाशाही की आशंका:
    यदि राज्य सामान्य इच्छा की व्याख्या अपने अनुसार करने लगे तो यह व्यक्ति स्वतंत्रता को कुचल सकता है।
  3. व्यवहारिक कठिनाई:
    आधुनिक जटिल समाज में प्रत्यक्ष लोकतंत्र और निरंतर सामान्य इच्छा की पहचान व्यावहारिक रूप से कठिन है।





निष्कर्ष:

रूसो की सामान्य इच्छा की संकल्पना लोकतंत्र की नैतिकता और समानता की भावना को दर्शाती है, लेकिन इसकी अमूर्तता और व्याख्या की संभावित दुरुपयोगिता इसे आलोचना के योग्य भी बनाती है।





प्रश्न 28: इमैनुअल कांट के मानव ज्ञान के अनुभवातीत आदर्शवादी दृष्टिकोण का परीक्षण कीजिए।



परिचय:

इमैनुअल कांट (Immanuel Kant) एक प्रमुख जर्मन दार्शनिक थे जिन्होंने “अनुभवातीत आदर्शवाद” (Transcendental Idealism) की अवधारणा प्रस्तुत की। उन्होंने मानव ज्ञान, नैतिकता और स्वतंत्रता को एक नए ढांचे में परिभाषित किया।




मुख्य विचार:


  1. ज्ञान की सीमाएं:
    कांट ने कहा कि हम वस्तुओं को उनके “स्वयं में” (noumena) रूप में नहीं, बल्कि केवल जैसे वे हमें दिखाई देती हैं (phenomena) वैसा ही जान सकते हैं।
  2. अनुभवातीत शर्तें:
    ज्ञान प्राप्त करने के लिए मन की कुछ पूर्व-निर्धारित अवधारणाएं और संवेदनाएं (जैसे समय, स्थान, कारण) आवश्यक हैं।
  3. विवेक और नैतिकता:
    उन्होंने विवेक को नैतिक निर्णय का स्रोत माना। उनका “Categorical Imperative” सिद्धांत नैतिकता का सार्वभौमिक नियम है।





आलोचना:


  1. अत्यधिक जटिलता:
    कांट के विचार आमजन के लिए कठिन हैं और उनमें अत्यधिक अमूर्तता है।
  2. वस्तु के ‘स्वरूप’ का रहस्य:
    यदि हम किसी वस्तु को उसके ‘स्वयं में’ रूप में नहीं जान सकते तो वह ज्ञान अधूरा रह जाता है।





निष्कर्ष:

कांट का अनुभवातीत आदर्शवाद ज्ञान की सीमाओं और नैतिक विवेक को समझने का गहरा दार्शनिक प्रयास है। यद्यपि कठिन है, यह आधुनिक ज्ञानमीमांसा और राजनीतिक नैतिकता की नींव बनाता है।





प्रश्न 29: हेगेल के राज्य के सिद्धांत पर निबंध लिखिए।



परिचय:

जॉर्ज डब्ल्यू. एफ. हेगेल (G.W.F. Hegel) जर्मन दार्शनिक थे, जिनका राज्य सिद्धांत Philosophy of Right में वर्णित है। हेगेल ने राज्य को “यथार्थवादी नैतिक विचार” (Actualization of Ethical Idea) कहा।




मुख्य विचार:


  1. राज्य की सर्वोच्चता:
    हेगेल के अनुसार राज्य समाज के सभी वर्गों और संस्थाओं को समन्वित करता है। यह व्यक्तियों की नैतिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है।
  2. द्वंद्ववाद:
    हेगेल ने विचारों के संघर्ष (थीसिस, एंटीथीसिस और सिंथीसिस) को राज्य के विकास की प्रक्रिया माना।
  3. नागरिक समाज और परिवार:
    उन्होंने राज्य की संरचना में परिवार, नागरिक समाज और राज्य को तीन स्तरों पर रखा।
  4. संवैधानिक राजतंत्र:
    हेगेल ने संवैधानिक राजशाही को सबसे उपयुक्त शासन प्रणाली माना, जहाँ स्वतंत्रता और व्यवस्था दोनों बनी रहती हैं।





आलोचना:


  • हेगेल का राज्य विचार कई बार अत्यधिक केंद्रीकरण और अधिनायकवाद का समर्थन करता प्रतीत होता है।
  • मार्क्स ने इसे “आदर्शवादी भ्रम” कहकर खारिज किया।





निष्कर्ष:

हेगेल का राज्य सिद्धांत नैतिकता, संगठन और विचारधारा को जोड़ने का प्रयास करता है। यह राज्य को केवल शक्ति नहीं, बल्कि नैतिक चेतना का प्रतीक मानता है, जो आधुनिक राजकीय सिद्धांतों को गहराई प्रदान करता है।





प्रश्न 30: कार्ल मार्क्स के कथन “समाज के आर्थिक ढांचे का गठन उत्पादन के संबंधों द्वारा होता है जो समाज का वास्तविक आधार है” पर टिप्पणी कीजिए।



परिचय:

यह कथन कार्ल मार्क्स की “ऐतिहासिक भौतिकवाद” (Historical Materialism) की संकल्पना का सार है। इसके अनुसार समाज की संरचना और विकास आर्थिक कारकों द्वारा निर्धारित होता है।




मुख्य तत्त्व:


  1. अर्थशास्त्रीय आधार (Infrastructure):
    उत्पादन के साधन (भूमि, पूंजी, श्रम) और उत्पादन संबंध (मालिक-मजदूर) समाज की आधारभूत संरचना बनाते हैं।
  2. आधार और अधिरचना (Base and Superstructure):
    आर्थिक आधार ही राजनीति, धर्म, नैतिकता, कानून जैसी अधिरचनाओं को प्रभावित करता है।
  3. वर्ग संघर्ष:
    समाज में एक वर्ग शोषक और दूसरा शोषित होता है। यह संघर्ष ही ऐतिहासिक परिवर्तन लाता है।





विश्लेषण:


  • यह विचार आर्थिक अन्याय और सामाजिक असमानता को समझने का विश्लेषणात्मक औजार प्रदान करता है।
  • यह पूंजीवादी समाज के आलोचनात्मक मूल्यांकन की पृष्ठभूमि देता है।





निष्कर्ष:

मार्क्स का यह कथन समाज के आर्थिक पहलुओं को उसकी संरचना और चेतना की जड़ मानता है। यह इतिहास, समाज और राजनीति को समझने के लिए एक क्रांतिकारी दृष्टिकोण प्रदान करता है।


प्रश्न 31: राजनीतिक चिंतन को राजनीतिक सिद्धांत तथा राजनीतिक दर्शन से कैसे अलग किया जाता है?



परिचय:

राजनीतिक चिंतन, राजनीतिक सिद्धांत और राजनीतिक दर्शन तीनों राजनीतिक विचार के अध्ययन की विभिन्न धाराएँ हैं। ये एक-दूसरे से जुड़ी होने के बावजूद स्वरूप, दृष्टिकोण और विधि में अलग हैं।




1. राजनीतिक चिंतन (Political Thought):

यह ऐतिहासिक रूप से विशिष्ट समाजों, संस्कृतियों या विचारकों के दृष्टिकोण को दर्शाता है।

विशेषताएँ:


  • किसी विशिष्ट युग या स्थान पर केंद्रित
  • सामान्यत: दार्शनिक या नैतिक दृष्टिकोण
  • उदाहरण: प्लेटो, अरस्तु, कौटिल्य, गांधी आदि का चिंतन





2. राजनीतिक सिद्धांत (Political Theory):

यह आधुनिक राजनीति की अवधारणाओं (जैसे स्वतंत्रता, समानता, न्याय) को व्यवस्थित रूप में विश्लेषण करता है।

विशेषताएँ:


  • तुलनात्मक व वैज्ञानिक
  • आदर्श और व्यवहार दोनों का समावेश
  • उदाहरण: रॉल्स का ‘न्याय सिद्धांत’, नोजिक का ‘स्वामित्व सिद्धांत’





3. राजनीतिक दर्शन (Political Philosophy):

यह राजनीति के पीछे छिपे नैतिक, दार्शनिक और तात्त्विक प्रश्नों पर विचार करता है।

विशेषताएँ:


  • ‘क्या होना चाहिए’ जैसे प्रश्नों पर विचार
  • गहराई और वैचारिक सुसंगति पर बल
  • उदाहरण: कांट, हेगेल, मार्क्स





तुलनात्मक सारणी:

मापदंड राजनीतिक चिंतन राजनीतिक सिद्धांत राजनीतिक दर्शन
स्वरूप ऐतिहासिक विश्लेषणात्मक दार्शनिक
उद्देश्य विचारों की प्रस्तुति अवधारणाओं का मूल्यांकन मूलभूत प्रश्नों की खोज
दृष्टिकोण आदर्शात्मक व्यवहारवादी + आदर्शात्मक आदर्शवादी
उदाहरण प्लेटो, अरस्तु, गांधी रॉल्स, नोजिक कांट, हेगेल, मार्क्स




निष्कर्ष:

तीनों धाराएँ एक-दूसरे की पूरक हैं, लेकिन उनके अध्ययन की दृष्टि और गहराई भिन्न होती है। राजनीतिक चिंतन इतिहास के विचारकों को, सिद्धांत विश्लेषण को और दर्शन मौलिक तात्त्विकता को सामने लाता है।





प्रश्न 32: प्लेटो का “न्याय का सिद्धांत” का मूल्यांकन कीजिए।



परिचय:

प्लेटो का न्याय का सिद्धांत उनकी रचना The Republic में वर्णित है। उन्होंने समाज में न्याय को ‘हर वर्ग द्वारा अपने कर्तव्य का पालन’ मानते हुए आदर्श राज्य की कल्पना की।




मुख्य विचार:


  1. व्यक्तिगत न्याय:
    व्यक्ति में तीन तत्व होते हैं – बुद्धि, साहस और इच्छा। न्याय तब होता है जब ये तत्व संतुलन में रहें और अपना कार्य करें।
  2. सामाजिक न्याय:
    समाज में तीन वर्ग – दार्शनिक शासक (बुद्धि), सैनिक (साहस) और उत्पादक वर्ग (इच्छा) हों।
    जब हर वर्ग अपने कर्तव्य का पालन करे और दूसरे वर्ग के कार्य में हस्तक्षेप न करे, तो वही न्याय है।
  3. न्याय = सामंजस्य:
    प्लेटो के अनुसार न्याय अव्यवस्था नहीं, बल्कि वर्गीय संतुलन और नैतिक अनुशासन है।





आलोचना:


  1. वर्ण व्यवस्था जैसी कल्पना:
    प्लेटो का वर्ग विभाजन कठोर और वंशानुगत है, जिससे सामाजिक गतिशीलता नहीं होती।
  2. लोकतांत्रिक मूल्यों का अभाव:
    न्याय की परिभाषा व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता को पर्याप्त महत्व नहीं देती।
  3. सत्तावादी झुकाव:
    प्लेटो का आदर्श राज्य अत्यधिक केंद्रीकृत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से रहित है।





निष्कर्ष:

प्लेटो का न्याय सिद्धांत आदर्शवादी दृष्टिकोण से समाज में संतुलन की कल्पना करता है। यह एक दार्शनिक दृष्टिकोण तो है, लेकिन व्यवहारिक रूप से इसकी सीमाएं हैं। फिर भी, यह पश्चिमी राजनीतिक विचार की नींव रखने वाला महत्वपूर्ण सिद्धांत है।





प्रश्न 33: ‘राज्य, संपत्ति और दासता‘ पर संत अगस्टिन के विचारों पर संक्षिप्त में चर्चा कीजिए।



परिचय:

संत अगस्टिन (St. Augustine) ईसाई धर्मशास्त्र और मध्यकालीन राजनीतिक चिंतन के प्रमुख विचारक थे। उन्होंने City of God में राज्य, संपत्ति और दासता को ईश्वर की इच्छा से उत्पन्न बताया।




राज्य पर विचार:


  • राज्य का जन्म पाप और असंगति के कारण हुआ।
  • राज्य का उद्देश्य पापी मानव को अनुशासित रखना है।





संपत्ति पर विचार:


  • संपत्ति मनुष्य की लालसा का परिणाम है।
  • आदर्श समाज में संपत्ति साझा होती, लेकिन वर्तमान में निजी संपत्ति अपरिहार्य है।





दासता पर विचार:


  • दासता पाप का फल है।
  • यह नैतिक रूप से गलत नहीं, बल्कि ईश्वरीय व्यवस्था है।





निष्कर्ष:

संत अगस्टिन का चिंतन धर्म और आध्यात्मिकता पर आधारित है। उनके अनुसार राज्य, संपत्ति और दासता सभी ईश्वर की योजना के तहत हैं, जिनका उद्देश्य मनुष्य को पाप से बचाना है।





प्रश्न 34: राजनीति तथा सरकार के स्वरूपों पर निकोलो मैकियावेली के विचारों की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।



परिचय:

मैकियावेली (Niccolò Machiavelli) आधुनिक राजनीतिक चिंतन के जनक माने जाते हैं। उन्होंने The Prince और Discourses में राजनीति को नैतिकता से अलग कर सत्ता के यथार्थवादी स्वरूप को प्रस्तुत किया।




राजनीति पर विचार:


  1. नैतिकता से विमुक्त:
    राजनीति नैतिकता के अधीन नहीं, बल्कि सत्ता प्राप्ति और संरक्षण का विज्ञान है।
  2. बल और चातुर्य का प्रयोग:
    एक शासक को ‘सिंह और लोमड़ी’ दोनों की तरह होना चाहिए – बलवान और चालाक।
  3. जनमत और स्थायित्व:
    शासक को जनमत का ध्यान रखना चाहिए, परंतु सत्ता की स्थिरता सर्वोपरि है।





सरकार के स्वरूप:


  • उन्होंने सरकार के तीन रूप बताए: राजतंत्र, गणराज्य और तानाशाही।
  • गणराज्य को उन्होंने अधिक स्थायी और टिकाऊ व्यवस्था माना।





निष्कर्ष:

मैकियावेली की राजनीति व्यावहारिक यथार्थ पर आधारित है। उनकी विचारधारा शक्ति की वास्तविकता को उजागर करती है, भले ही उसे अनैतिक माना जाए।





प्रश्न 35: मानव प्रकृति तथा संप्रभुता पर हॉब्स की अवधारणा का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।



परिचय:

थॉमस हॉब्स (Thomas Hobbes) ने Leviathan में मानव स्वभाव और राज्य की उत्पत्ति पर विचार किया। उन्होंने संप्रभुता को पूर्ण और अविभाज्य माना।




मानव प्रकृति पर विचार:


  • मनुष्य स्वभावतः स्वार्थी, भयभीत और प्रतिस्पर्धी है।
  • प्रकृति की स्थिति में ‘‘मनुष्य, मनुष्य के लिए भेड़िया’’ है (Homo homini lupus)।





संप्रभुता की अवधारणा:


  • सामाजिक संविदा के तहत लोग अपनी स्वतंत्रता त्यागकर एक संप्रभु को सत्ता सौंपते हैं।
  • यह संप्रभु निरंकुश, अविभाज्य और पूर्ण अधिकार संपन्न होता है।





आलोचना:


  1. अत्यधिक निरंकुशता:
    संप्रभु की पूर्ण सत्ता व्यक्तियों की स्वतंत्रता का हनन कर सकती है।
  2. मानव स्वभाव का नकारात्मक चित्रण:
    हॉब्स ने मानव प्रकृति को अत्यधिक भय और स्वार्थ से भरा बताया, जो अतिरंजित लगता है।





निष्कर्ष:

हॉब्स ने राज्य की उत्पत्ति को सुरक्षा की आवश्यकता से जोड़ा। उनकी संप्रभुता की अवधारणा अधिनायकवाद की ओर झुकती है, लेकिन यह आधुनिक राज्य सिद्धांत की नींव रखने वाली है।


प्रश्न 36: फ्रांसीसी क्रांति पर एडमंड बर्क के विचारों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।



परिचय:

एडमंड बर्क (Edmund Burke) अठारहवीं सदी के प्रमुख रूढ़िवादी विचारक थे। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कृति Reflections on the Revolution in France में फ्रांसीसी क्रांति की तीव्र आलोचना की। वह परंपरा, निरंतरता और क्रमिक सुधार के समर्थक थे।




बर्क के विचार:


  1. परंपरा का महत्व:
    बर्क के अनुसार समाज की संस्थाएं (राजा, चर्च, संसद) समय की कसौटी पर खरे उतरे अनुभवों का परिणाम होती हैं। इन्हें अचानक समाप्त करना सामाजिक विघटन को जन्म देता है।
  2. व्यवस्था में क्रमिक सुधार:
    उन्होंने सुधार को समर्थन दिया, लेकिन वह क्रांति के माध्यम से मूलभूत ढांचे को तोड़ने के विरोधी थे। सुधार धीरे-धीरे और व्यावहारिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।
  3. प्राकृतिक अधिकारों की आलोचना:
    बर्क ने ‘प्राकृतिक अधिकारों’ की उस व्याख्या का विरोध किया जो फ्रांसीसी क्रांतिकारियों ने की थी। उनके अनुसार अधिकार संविधान और परंपरा से मिलते हैं, न कि अमूर्त तर्क से।





आलोचना:


  1. सुधार के प्रति संकीर्ण दृष्टिकोण:
    बर्क का दृष्टिकोण इतना परंपरावादी था कि उसने शोषण और अन्याय के विरुद्ध उठने वाली आवाज़ों को पर्याप्त महत्व नहीं दिया।
  2. क्रांति के सकारात्मक पक्षों की उपेक्षा:
    उन्होंने समानता, स्वतंत्रता और मानवाधिकारों जैसे मूल्यों की उपेक्षा की, जो फ्रांसीसी क्रांति से उभरे।
  3. प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण:
    बर्क के विचार राजतंत्र और सामंती व्यवस्था की रक्षा में अधिक दिखाई देते हैं, जो कि रूढ़िवाद की चरम सीमा है।





निष्कर्ष:

बर्क का चिंतन सामाजिक स्थिरता और क्रमिक सुधार का समर्थन करता है। हालांकि उनकी आलोचना कुछ मामलों में अतिरंजित थी, फिर भी उन्होंने चेतावनी दी कि अराजकता के स्थान पर विवेकपूर्ण सुधार ही समाज के लिए लाभकारी है। उनके विचार आज भी व्यावहारिक राजनीति में संतुलन के प्रतीक हैं।





प्रश्न 37: इमैनुअल कांट के राजनीतिक दर्शन के चरित्र को अंतरराष्ट्रीय क्यों माना जाता है?



परिचय:

इमैनुअल कांट (Immanuel Kant) जर्मन आदर्शवादी दार्शनिक थे, जिन्होंने अपने राजनीतिक चिंतन में मानवाधिकार, सार्वभौमिक नैतिकता और वैश्विक शांति की संकल्पना दी। उनकी कृति Perpetual Peace उनके अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण की आधारशिला है।




कांट के अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक दर्शन की विशेषताएँ:


  1. सार्वभौमिक नैतिकता:
    कांट का मानना था कि हर व्यक्ति को नैतिक नियमों के आधार पर व्यवहार करना चाहिए जो सभी पर समान रूप से लागू हो। यह सोच राज्य-सीमाओं से परे है।
  2. ‘शाश्वत शांति’ का विचार:
    कांट ने विश्व शांति के लिए लोकतांत्रिक शासन, राष्ट्रों के बीच एक महासंघ (Federation of States) और खुले कूटनीति की वकालत की।
  3. मानवाधिकार का वैश्विक दृष्टिकोण:
    उनके अनुसार मानवाधिकार किसी एक देश की देन नहीं, बल्कि सभी मनुष्यों के लिए समान रूप से लागू होते हैं।
  4. विश्व नागरिकता (Cosmopolitanism):
    कांट ने ‘विश्व नागरिकता अधिकार’ का समर्थन किया जो व्यक्तियों को वैश्विक स्तर पर समान सम्मान दिलाता है।





अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण का महत्व:


  • युद्ध और संघर्ष के बजाय सहयोग की वकालत
  • राष्ट्रों के बीच नैतिक संबंधों की स्थापना
  • वैश्विक न्याय और कानून के सिद्धांतों का समर्थन





निष्कर्ष:

कांट का राजनीतिक दर्शन सीमाओं और राष्ट्रवाद से ऊपर उठकर संपूर्ण मानवता के कल्याण की बात करता है। यही कारण है कि उन्हें अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक सिद्धांत का अग्रदूत माना जाता है। संयुक्त राष्ट्र जैसे संस्थान उनके विचारों की व्यावहारिक अभिव्यक्ति हैं।





प्रश्न 38: लोकतंत्र, क्रांति तथा आधुनिक राज्य पर टॉकविल के विचारों का परीक्षण कीजिए।



परिचय:

एलेक्सिस डी टॉकविल (Alexis de Tocqueville) एक फ्रांसीसी चिंतक और राजनीतिक समाजशास्त्री थे। उनकी प्रसिद्ध कृति Democracy in America में उन्होंने लोकतंत्र, क्रांति और आधुनिक राज्य की प्रक्रियाओं का सूक्ष्म विश्लेषण किया।




लोकतंत्र पर विचार:


  1. समानता की शक्ति:
    टॉकविल ने लोकतंत्र को समानता की ओर बढ़ने वाली ऐतिहासिक प्रक्रिया बताया।
  2. लोकतंत्र की चुनौतियाँ:
    उन्होंने चेताया कि लोकतंत्र में स्वतंत्रता की बलि देकर बहुमत का अत्याचार उत्पन्न हो सकता है।





क्रांति पर विचार:


  1. फ्रांसीसी क्रांति का विश्लेषण:
    टॉकविल ने कहा कि फ्रांसीसी क्रांति मात्र सामाजिक व्यवस्था का परिवर्तन नहीं थी, बल्कि यह केंद्रीय सत्ता को और अधिक मजबूत करने की दिशा में गई।
  2. राज्य का केंद्रीकरण:
    क्रांति के बाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता में वृद्धि के स्थान पर राज्य का अधिकार और बढ़ा।





आधुनिक राज्य पर विचार:


  1. केन्द्रीय शक्ति का उदय:
    टॉकविल ने आधुनिक राज्य को एक केंद्रीकृत प्रशासनिक प्रणाली के रूप में देखा, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकती है।
  2. स्वतंत्र संस्थाओं की भूमिका:
    उन्होंने स्थानीय स्वशासन, प्रेस की स्वतंत्रता और न्यायपालिका की निष्पक्षता को लोकतंत्र की रक्षा के लिए आवश्यक बताया।





निष्कर्ष:

टॉकविल का चिंतन लोकतंत्र के गुण-दोषों का संतुलित विश्लेषण प्रस्तुत करता है। वे स्वतंत्रता, समानता और संस्थागत नियंत्रण के बीच संतुलन के पक्षधर थे, जो आज के लोकतंत्र की नींव हैं।





प्रश्न 39: मार्क्स के “अलगाव के सिद्धांत” पर चर्चा कीजिए।



परिचय:

कार्ल मार्क्स का “अलगाव का सिद्धांत” (Theory of Alienation) उनकी आरंभिक कृति Economic and Philosophic Manuscripts of 1844 में वर्णित है। यह पूंजीवादी समाज में श्रमिक की स्थिति का गहरा विश्लेषण करता है।




अलगाव के प्रकार:


  1. उत्पाद से अलगाव:
    श्रमिक अपने श्रम के उत्पाद पर अधिकार नहीं रखता। वह वस्तु उसके लिए अजनबी बन जाती है।
  2. उत्पादन प्रक्रिया से अलगाव:
    श्रमिक केवल मशीन का एक पुर्ज़ा बनकर रह जाता है। उसे अपनी रचनात्मकता का उपयोग नहीं करने दिया जाता।
  3. स्वयं से अलगाव:
    श्रमिक अपना सार खो बैठता है। वह श्रम में आनंद नहीं पाता, बल्कि यह उसकी पीड़ा बन जाती है।
  4. अन्य मनुष्यों से अलगाव:
    पूंजीवादी व्यवस्था में श्रमिक और पूंजीपति के बीच संबंध शोषण और प्रतिस्पर्धा पर आधारित होता है, जिससे सामाजिक संबंध टूटते हैं।





प्रभाव:


  • मानवता का ह्रास
  • मानसिक तनाव और असंतोष
  • सामाजिक और आत्मिक अलगाव





निष्कर्ष:

मार्क्स का अलगाव सिद्धांत आधुनिक पूंजीवाद की विसंगतियों को उजागर करता है। यह केवल आर्थिक आलोचना नहीं, बल्कि एक मानवतावादी चेतावनी है। आज के समय में भी यह विचार श्रमिकों की मनोवैज्ञानिक स्थिति को समझने में सहायक है।





प्रश्न 40: पश्चिमी राजनीतिक चिंतन की प्रासंगिकता का वर्णन कीजिए।



परिचय:

पश्चिमी राजनीतिक चिंतन मानव इतिहास के राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक मुद्दों पर गंभीर विमर्श की एक शृंखला है। प्लेटो से लेकर मार्क्स तक, इस परंपरा ने आधुनिक राज्य, लोकतंत्र, अधिकारों और न्याय जैसे सिद्धांतों को जन्म दिया।




प्रासंगिकता के आयाम:


  1. लोकतंत्र की नींव:
    प्लेटो, अरस्तु, लॉक और मिल जैसे विचारकों ने लोकतंत्र, स्वतंत्रता और न्याय की नींव रखी, जो आज वैश्विक राजनीति का आधार हैं।
  2. राज्य और सरकार की अवधारणाएँ:
    हॉब्स, लॉक और रूसो ने राज्य की उत्पत्ति और सरकार के स्वरूपों की जो अवधारणाएँ दीं, वे आज भी संविधानों की नींव हैं।
  3. मानवाधिकार और स्वतंत्रता:
    कांट, बेंथम और मिल के विचार आज भी मानवाधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा में उपयोगी हैं।
  4. आर्थिक और सामाजिक विचार:
    मार्क्स का वर्ग-संघर्ष और श्रमिक अधिकारों का चिंतन आज भी श्रम कानूनों और सामाजिक न्याय की नीतियों में प्रभावी है।





निष्कर्ष:

पश्चिमी राजनीतिक चिंतन केवल ऐतिहासिक ज्ञान नहीं, बल्कि आज की लोकतांत्रिक, सामाजिक और वैश्विक राजनीति को समझने की एक अनिवार्य कुंजी है। इसकी अवधारणाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी अपने समय में थीं।


प्रश्न 41: अरस्तु के राजनीतिक चिंतन में राजनीति तथा नैतिकता के बीच संबंधों का परीक्षण कीजिए।



परिचय:

अरस्तु (Aristotle) ने राजनीति को नैतिकता से गहराई से जोड़ा। उनके अनुसार राजनीति का उद्देश्य “श्रेष्ठ जीवन” को प्राप्त करना है, जो बिना नैतिकता के संभव नहीं। उनकी कृति “The Politics” और “Nicomachean Ethics” इस विचार को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं।




राजनीति और नैतिकता का संबंध:


  1. राज्य का उद्देश्य – नैतिक पूर्णता:
    अरस्तु के अनुसार राज्य केवल सुरक्षा या आर्थिक हितों की पूर्ति का साधन नहीं है, बल्कि इसका अंतिम उद्देश्य नागरिकों के नैतिक और बौद्धिक जीवन को उन्नत करना है।
  2. नीति और राजनीतिक जीवन का एकीकरण:
    अरस्तु मानते थे कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है (Zoon Politikon) और उसकी नैतिकता समाज में रहने और राजनीति में भाग लेने से ही विकसित होती है।
  3. श्रेष्ठ जीवन की परिकल्पना:
    अरस्तु के लिए राजनीति वह माध्यम है जो ‘यूडैमोनिया’ (Eudaimonia – मानव का चरम कल्याण) की प्राप्ति संभव बनाती है। यह केवल तभी संभव है जब राजनीतिक व्यवस्था नैतिक मूल्यों पर आधारित हो।
  4. शासकों के नैतिक गुण:
    अरस्तु का मत था कि आदर्श शासक वह है जो नैतिक गुणों (संतुलन, न्याय, संयम) से युक्त हो, क्योंकि ऐसे गुण राज्य को स्थिर और नागरिकों को संतुष्ट बनाते हैं।





आलोचना:


  • अरस्तु का दृष्टिकोण आदर्शवादी है और आधुनिक व्यावसायिक राजनीति में इसकी उपयोगिता सीमित मानी जाती है।
  • उन्होंने गुलामी और महिलाओं को राजनीति से बाहर रखा, जिससे नैतिकता की सार्वभौमिकता पर प्रश्न उठते हैं।





निष्कर्ष:

अरस्तु के अनुसार राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं, बल्कि नैतिक गुणों के विकास और अभ्यास का मंच है। उनके चिंतन में राजनीति और नैतिकता का गहरा संबंध है, जो आज भी राजनीतिक सिद्धांत की आत्मा बना हुआ है।





प्रश्न 42: जॉन लॉक के प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।



परिचय:

जॉन लॉक (John Locke) को “आधुनिक उदारवाद का जनक” कहा जाता है। उन्होंने प्राकृतिक अधिकारों (Natural Rights) की अवधारणा दी, जो स्वतंत्रता, जीवन और संपत्ति के अधिकार पर केंद्रित थी।




प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा:


  1. स्वाभाविक अधिकार:
    लॉक के अनुसार मनुष्य जन्म से ही कुछ अधिकारों के साथ आता है – जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति का अधिकार।
  2. सामाजिक संविदा और राज्य:
    ये अधिकार सुरक्षित रखने हेतु मनुष्य राज्य की स्थापना करता है। राज्य का कार्य इन अधिकारों की रक्षा करना है, न कि उन्हें छीनना।
  3. सीमित सरकार की अवधारणा:
    राज्य को केवल उतनी शक्ति प्राप्त होती है जितनी नागरिक उसे स्वेच्छा से देते हैं। यह सिद्धांत उदार लोकतंत्र का आधार बना।
  4. विद्रोह का अधिकार:
    यदि सरकार इन अधिकारों का उल्लंघन करती है तो जनता को उसे बदलने का अधिकार है।





आलोचना:


  1. पूंजीवादी दृष्टिकोण:
    लॉक की संपत्ति की अवधारणा पूंजीवादी वर्ग के हितों की सुरक्षा करती है और समाज में असमानता को बढ़ावा देती है।
  2. व्यवहारिक सीमाएं:
    सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त नहीं होते, विशेषकर ऐतिहासिक संदर्भ में महिलाओं, ग़रीबों और गुलामों को।
  3. राज्य की भूमिका सीमित:
    लॉक का राज्य केवल सुरक्षा तक सीमित है, जबकि आज राज्य का कार्यक्षेत्र शिक्षा, स्वास्थ्य, और सामाजिक कल्याण तक फैला है।





निष्कर्ष:

लॉक का प्राकृतिक अधिकार सिद्धांत आज भी मानवाधिकारों और उदार लोकतंत्र की नींव है, किंतु उसकी कुछ सीमाएं आधुनिक राज्य व्यवस्था की व्यापकता में स्पष्ट होती हैं। फिर भी, उसका ऐतिहासिक महत्व असंदिग्ध है।





प्रश्न 43: कानून तथा राज्य पर थॉमस एक्वीनास के विचारों का विश्लेषण कीजिए।



परिचय:

थॉमस एक्वीनास (St. Thomas Aquinas) मध्यकालीन ईसाई चिंतक थे। उन्होंने अरस्तु के तर्कवाद और ईसाई धर्मशास्त्र का समन्वय कर कानून और राज्य के सिद्धांत को विकसित किया।




कानून की अवधारणाएँ:


  1. प्राकृतिक कानून (Natural Law):
    एक्वीनास के अनुसार यह वह कानून है जो मनुष्य की बुद्धि द्वारा ईश्वर द्वारा निर्मित नैतिक व्यवस्था को पहचानता है।
  2. मानव निर्मित कानून (Human Law):
    यह कानून समाज के लिए आवश्यक होता है, लेकिन इसकी वैधता तब तक ही है जब तक वह नैतिक और प्राकृतिक कानूनों के अनुरूप हो।
  3. ईश्वरीय कानून (Divine Law):
    यह ईश्वर द्वारा धर्मग्रंथों में दिया गया है, जो मानव जीवन के अंतिम उद्देश्य की ओर मार्गदर्शन करता है।





राज्य की अवधारणा:


  1. राज्य का उद्देश्य – नैतिक कल्याण:
    राज्य मानव की भौतिक ही नहीं, आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु होता है।
  2. न्यायपूर्ण शासन:
    कोई भी शासक यदि अन्यायपूर्ण है तो वह वैध नहीं है। एक्वीनास ने ऐसे शासकों के विरोध का समर्थन किया।





विश्लेषण:


  • एक्वीनास ने धर्म और तर्क का सुंदर समन्वय किया।
  • उनकी नैतिकता आधारित कानून की अवधारणा आधुनिक संविधानवाद के लिए आधारभूत रही है।
  • हालांकि, धर्म पर अत्यधिक बल आज के धर्मनिरपेक्ष समाजों में व्यवहारिक नहीं लगता।





निष्कर्ष:

एक्वीनास का राजनीतिक चिंतन कानून और राज्य को नैतिकता और धार्मिकता से जोड़ता है। यह धार्मिक परंपरा में कानून की वैधता की एक ठोस व्याख्या देता है, जो मध्यकालीन यूरोप की राजनीति में अत्यंत प्रभावशाली सिद्ध हुआ।





प्रश्न 44: “आदमी स्वतंत्र पैदा होता है लेकिन हर जगह वह जंजीर में है” – इस संदर्भ में रूसो का ‘अधिकार के साथ स्वतंत्रता’ को समेटने का प्रयास।



परिचय:

यह प्रसिद्ध कथन रूसो की The Social Contract का है, जिसमें उन्होंने कहा कि जन्म से सभी मनुष्य स्वतंत्र हैं, परंतु समाज उन्हें बंधन में डाल देता है। उन्होंने समाज और राज्य की व्यवस्था में स्वतंत्रता और अधिकार को समेटने का प्रयास किया।




रूसो की अवधारणाएं:


  1. प्राकृतिक स्वतंत्रता बनाम नागरिक स्वतंत्रता:
    प्राकृतिक स्थिति में मनुष्य स्वतंत्र होता है, लेकिन असुरक्षित भी। सामाजिक अनुबंध के माध्यम से वह नागरिक स्वतंत्रता प्राप्त करता है, जो अधिकारों की रक्षा करती है।
  2. सामान्य इच्छा (General Will):
    समाज का हर सदस्य अपने व्यक्तिगत हित को छोड़कर ‘सामान्य इच्छा’ के अधीन होता है, जिससे सामूहिक स्वतंत्रता और समानता सुनिश्चित होती है।
  3. नैतिक स्वतंत्रता:
    रूसो का उद्देश्य केवल बाह्य स्वतंत्रता नहीं, बल्कि आत्म-नियंत्रण पर आधारित नैतिक स्वतंत्रता है, जो व्यक्ति को ज़िम्मेदारी के साथ स्वतंत्र बनाती है।





अधिकार और स्वतंत्रता का समन्वय:


  • रूसो का सामाजिक अनुबंध व्यक्ति को अधिकार देता है लेकिन साथ ही उसे दूसरों की स्वतंत्रता का भी सम्मान करना सिखाता है।
  • यह अनुबंध व्यक्ति को समानता और भागीदारी के आधार पर राजनीतिक व्यवस्था का अंग बनाता है।





निष्कर्ष:

रूसो ने स्वतंत्रता को केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक आयाम में देखा। उन्होंने अधिकार के साथ उत्तरदायित्व का विचार प्रस्तुत किया, जो आज भी लोकतंत्र और नागरिकता की अवधारणाओं की आत्मा है।





प्रश्न 45: जेरेमी बेंथम के उपयोगितावाद सिद्धांतों की व्याख्या कीजिए।



परिचय:

जेरेमी बेंथम (Jeremy Bentham) 18वीं सदी के ब्रिटिश दार्शनिक थे, जिन्होंने Utilitarianism या उपयोगितावाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया। उनके अनुसार – “Greatest happiness of the greatest number” ही नैतिकता और राजनीति का मापदंड होना चाहिए।




उपयोगितावाद के प्रमुख सिद्धांत:


  1. सुख और दुःख का गणना सिद्धांत:
    हर कार्य का मूल्यांकन इस आधार पर किया जाना चाहिए कि वह कितने लोगों को कितना सुख देता है और कितना दुःख।
  2. हेडोनिज्म:
    बेंथम के अनुसार सुख ही एकमात्र स्वाभाविक रूप से अच्छा वस्तु है, और दुःख स्वाभाविक रूप से बुरा।
  3. सुख की गणना (Hedonic Calculus):
    सुख की मात्रा को उसकी तीव्रता, अवधि, निश्चितता, निकटता, और विस्तार के आधार पर मापा जा सकता है।





प्रभाव:


  • विधि निर्माण में उपयोगितावाद का गहरा प्रभाव पड़ा।
  • यह सार्वजनिक नीति के निर्धारण के लिए व्यावहारिक मार्गदर्शन प्रदान करता है।





निष्कर्ष:

बेंथम का उपयोगितावाद नैतिकता को व्यावहारिक और गणनात्मक रूप में प्रस्तुत करता है। यद्यपि इसमें कुछ सीमाएँ हैं, फिर भी यह आधुनिक लोकतांत्रिक नीति-निर्माण और कल्याणकारी राज्य के लिए एक प्रभावशाली आधार बन चुका है।


प्रश्न 46: कांत के अधिकार के सार्वभौमिक कानून की संकल्पना का विश्लेषण कीजिए।



परिचय:

इमैनुअल कांत (Immanuel Kant) पश्चिमी राजनीतिक चिंतन के प्रमुख दार्शनिकों में से एक थे। उन्होंने नैतिकता और कानून को सार्वभौमिक सिद्धांतों पर आधारित करने का प्रयास किया। उनके Categorical Imperative और सार्वभौमिक कानून के अधिकार का विचार आधुनिक मानवाधिकारों और अंतरराष्ट्रीय कानून की नींव बनाता है।




सार्वभौमिक कानून की संकल्पना:


  1. Categorical Imperative:
    कांत के अनुसार – “तुम वही करो जो तुम चाहो कि वह एक सार्वभौमिक नियम बन जाए।” यानी प्रत्येक कार्य ऐसा होना चाहिए कि वह सभी के लिए लागू हो सके।
  2. नैतिक स्वायत्तता और कर्तव्य:
    कांत ने नैतिकता को कर्तव्य पर आधारित माना, न कि परिणामों पर। इस दृष्टिकोण में हर व्यक्ति का व्यवहार दूसरों के अधिकारों और स्वतंत्रता के सम्मान पर आधारित होना चाहिए।
  3. विधि और नैतिकता का अंतर:
    कांत ने नैतिक कर्तव्य और कानूनी दायित्व में अंतर किया, परंतु दोनों को सार्वभौमिक नैतिकता के सिद्धांत से जोड़कर देखा।
  4. सार्वभौमिक मानव अधिकार:
    कांत का मानना था कि हर व्यक्ति एक उद्देश्य है, साधन नहीं। इसीलिए किसी भी व्यक्ति के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए जो उसे केवल साधन बना दे।





विश्लेषण:


  • कांत का सिद्धांत शुद्ध तर्क पर आधारित है, जो नैतिक व्यवहार के लिए स्पष्ट मार्गदर्शन देता है।
  • इसका प्रभाव संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार घोषणा पत्र तथा अंतरराष्ट्रीय कानून में देखा जा सकता है।
  • आलोचना यह है कि उसका सिद्धांत अत्यधिक आदर्शवादी है और व्यावहारिक राजनीति में लागू करना कठिन हो सकता है।





निष्कर्ष:

कांत के अधिकार का सार्वभौमिक कानून नैतिकता की सार्वभौमिकता और प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा को सम्मान देने की ओर इशारा करता है। यह विचार आज के मानवाधिकार विमर्श और कानूनी व्यवस्थाओं में अत्यंत प्रासंगिक है।





प्रश्न 47: टॉकवील के दर्शन में ‘राजनीति में धर्म का महत्व‘ का परीक्षण कीजिए।



परिचय:

एलेक्सी डे टॉकवील (Alexis de Tocqueville) फ्रांसीसी विचारक थे जिन्होंने अमेरिका की लोकतांत्रिक व्यवस्था का गहन अध्ययन किया। उनकी कृति Democracy in America में उन्होंने धर्म और लोकतंत्र के बीच संबंधों पर विशेष बल दिया।




राजनीति में धर्म का महत्व:


  1. धर्म – नैतिक अनुशासन का स्रोत:
    टॉकवील के अनुसार धर्म लोगों के आचरण को नियंत्रित करता है और लोकतंत्र के लिए आवश्यक नैतिक आधार तैयार करता है।
  2. धर्म और स्वतंत्रता का संतुलन:
    उन्होंने देखा कि अमेरिका में धार्मिक विश्वास लोगों को स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने से रोकता है, जिससे राजनीतिक स्थिरता बनी रहती है।
  3. धर्म का अपराज्ञ प्रभाव:
    टॉकवील ने कहा – “धर्म अमेरिका में कानून से अधिक शक्तिशाली है क्योंकि यह आत्मा पर शासन करता है।”
  4. धर्म का धर्मनिरपेक्ष राजनीति में योगदान:
    टॉकवील यह मानते थे कि आधुनिक लोकतंत्र को धर्म की आवश्यकता है, भले ही राज्य धर्मनिरपेक्ष क्यों न हो।





विश्लेषण:


  • उन्होंने धर्म को लोकतंत्र का शत्रु नहीं बल्कि रक्षक बताया।
  • आलोचक कहते हैं कि उन्होंने केवल ईसाई धर्म के अनुभव पर आधारित निष्कर्ष निकाले, जो सार्वभौमिक नहीं माने जा सकते।





निष्कर्ष:

टॉकवील का दर्शन यह दर्शाता है कि लोकतंत्र को नैतिकता और आत्मनियंत्रण की आवश्यकता है, जो धर्म के माध्यम से प्राप्त हो सकती है। राजनीति में धर्म की भूमिका आज भी बहस का विषय है, लेकिन टॉकवील का दृष्टिकोण एक संतुलित दृष्टि प्रदान करता है।





प्रश्न 48: हेगेल द्वारा प्रतिपादित ‘आदर्शवाद तथा राज्य‘ के सिद्धांत का विश्लेषण कीजिए।



परिचय:

गे. डब्ल्यू. एफ. हेगेल (G.W.F. Hegel) जर्मन दार्शनिक थे, जिन्होंने आदर्शवाद (Idealism) को राजनीतिक सिद्धांत में समाहित किया। उन्होंने राज्य को “ईश्वर का पृथ्वी पर चलायमान रूप” कहा।




हेगेल का आदर्शवाद:


  1. विचार की प्रधानता:
    हेगेल के अनुसार वास्तविकता विचार (Idea) से उत्पन्न होती है। आत्मा या चेतना ही वास्तविकता का अंतिम रूप है।
  2. द्वंद्वात्मक पद्धति (Dialectic):
    विकास एक प्रक्रिया है – थीसिस, एंटीथीसिस और सिंथेसिस। यह प्रक्रिया राज्य के विकास में भी देखी जाती है।





राज्य के सिद्धांत:


  1. राज्य – नैतिकता की मूर्त अभिव्यक्ति:
    हेगेल के लिए राज्य समाज की नैतिक चेतना का पूर्ण रूप है।
  2. स्वतंत्रता का मूर्त रूप:
    व्यक्ति की वास्तविक स्वतंत्रता राज्य के भीतर ही संभव है। राज्य बिना नागरिकों को आत्म-साक्षात्कार नहीं मिलता।
  3. नागरिक समाज से भिन्न:
    नागरिक समाज केवल व्यक्तिगत हितों की पूर्ति करता है, जबकि राज्य सार्वजनिक हित और नैतिक मूल्यों की रक्षा करता है।





आलोचना:


  • हेगेल का राज्य अत्यधिक आदर्शवादी और सर्वशक्तिमान लगता है।
  • फासीवादी विचारकों ने भी हेगेल की व्याख्या का उपयोग कर सत्ता को न्यायोचित ठहराया।





निष्कर्ष:

हेगेल का आदर्शवादी राज्य व्यक्ति की नैतिक और राजनीतिक परिपूर्णता की ओर संकेत करता है। हालांकि इसकी व्याख्या और उपयोग में मतभेद हैं, परंतु यह आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत में गहरे प्रभाव छोड़ता है।





प्रश्न 49: कार्ल मार्क्स से वर्ग युद्ध सिद्धांत का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।



परिचय:

कार्ल मार्क्स का वर्ग संघर्ष (Class Struggle) सिद्धांत ऐतिहासिक भौतिकवाद की रीढ़ है। उन्होंने इतिहास को “वर्गों के संघर्ष का इतिहास” कहा।




वर्ग संघर्ष का सिद्धांत:


  1. ऐतिहासिक संघर्ष:
    हर समाज में एक वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है (शोषक वर्ग), और दूसरा वर्ग श्रम करता है (शोषित वर्ग)। यह टकराव परिवर्तन को जन्म देता है।
  2. पूंजीवाद में संघर्ष:
    पूंजीपति (Bourgeoisie) और मजदूर (Proletariat) के बीच संघर्ष अनिवार्य है, क्योंकि एक का लाभ दूसरे की हानि पर आधारित है।
  3. क्रांति और समाजवाद:
    वर्ग संघर्ष अंततः सर्वहारा वर्ग की क्रांति द्वारा पूंजीवाद को समाप्त करेगा और वर्गहीन समाज की स्थापना करेगा।





आलोचना:


  • यह सिद्धांत आर्थिक निर्धारणवाद पर अत्यधिक निर्भर करता है।
  • यह संस्कृति, जाति, लिंग जैसे अन्य कारकों की उपेक्षा करता है।
  • पश्चिमी समाजों में वर्ग संघर्ष की तीव्रता उतनी नहीं रही जितनी मार्क्स ने भविष्यवाणी की थी।





निष्कर्ष:

मार्क्स का वर्ग संघर्ष सिद्धांत समाज के शोषण और असमानता की गहराई से पड़ताल करता है। हालांकि इसकी सीमाएं हैं, परंतु यह समाजशास्त्र और राजनीति के क्षेत्र में क्रांतिकारी विचार रहा है।





प्रश्न 50: अरस्तु की पद्धति का वर्णन कीजिए। यह प्लेटो की पद्धति से किस प्रकार भिन्न थी?



परिचय:

अरस्तु और प्लेटो, दोनों महान यूनानी दार्शनिक थे, परंतु उनकी विचार पद्धतियाँ भिन्न थीं। अरस्तु ने यथार्थवादी (Empirical) पद्धति अपनाई जबकि प्लेटो आदर्शवादी (Idealist) थे।




अरस्तु की पद्धति:


  1. अनुभववादी दृष्टिकोण (Empiricism):
    अरस्तु का विश्वास था कि ज्ञान इंद्रिय अनुभवों से प्राप्त होता है।
  2. व्यावहारिक अध्ययन:
    उन्होंने राजनीति, जीवविज्ञान, तर्कशास्त्र जैसे विषयों का गहन विश्लेषण किया और विश्लेषणात्मक विधियों का उपयोग किया।
  3. कारण और तर्क का उपयोग:
    उन्होंने तर्क के माध्यम से वास्तविकता को समझने की कोशिश की, न कि केवल धारणा या विचार से।





प्लेटो की पद्धति:


  1. आदर्शवाद (Idealism):
    प्लेटो के अनुसार सच्चा ज्ञान भौतिक संसार में नहीं, बल्कि आदर्श रूपों की दुनिया में होता है।
  2. द्वैत दृष्टिकोण:
    उन्होंने आत्मा और शरीर, आदर्श और यथार्थ को अलग-अलग माना।
  3. दार्शनिक संवाद (Dialectic):
    उन्होंने संवाद के माध्यम से सत्य की खोज को प्राथमिकता दी।





तुलनात्मक भिन्नता:

पक्ष प्लेटो अरस्तु
ज्ञान का स्रोत आदर्श रूप (Ideas) अनुभव और निरीक्षण
पद्धति आदर्शवादी, संवादात्मक यथार्थवादी, विश्लेषणात्मक
लक्ष्य आदर्श राज्य की खोज व्यावहारिक राज्य का विश्लेषण

निष्कर्ष:

अरस्तु ने प्लेटो की आदर्शवादी पद्धति से हटकर एक व्यावहारिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उनकी पद्धति आधुनिक राजनीति और विज्ञान के विकास में अत्यंत उपयोगी रही है।



प्रश्न 51: मानव स्वभाव और प्राकृतिक अधिकारों के बारे में थॉमस हॉब्स की अवधारणा का मूल्यांकन कीजिए।



थॉमस हॉब्स (1588–1679) एक प्रमुख अंग्रेज दार्शनिक थे जिन्होंने आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की नींव रखी। उनका दृष्टिकोण मुख्यतः यथार्थवादी था और उन्होंने मानव स्वभाव को गहराई से विश्लेषित किया।


मानव स्वभाव की धारणा:

हॉब्स के अनुसार, मानव स्वभाव स्वार्थी, भय से प्रेरित और प्रतिस्पर्धी होता है। उनका मानना था कि प्राकृतिक अवस्था (state of nature) में प्रत्येक व्यक्ति अपनी रक्षा और स्वार्थ के लिए स्वतंत्र होता है। यह स्थिति “सभी के विरुद्ध सभी का युद्ध” (bellum omnium contra omnes) कहलाती है, जहाँ जीवन “क्रूर, हिंसक और छोटा” होता है।


प्राकृतिक अधिकार (Natural Rights):

हॉब्स के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को जन्म से कुछ प्राकृतिक अधिकार प्राप्त होते हैं, जिनमें प्रमुख है – आत्मरक्षा का अधिकार। लेकिन जब प्रत्येक व्यक्ति वही अधिकार उपयोग करता है, तो अराजकता फैलती है। अतः शांति के लिए लोग अपने कुछ अधिकार संप्रभु को सौंप देते हैं।


सामाजिक अनुबंध (Social Contract):

हॉब्स की राज्य की अवधारणा सामाजिक अनुबंध पर आधारित है, जहाँ व्यक्ति स्वेच्छा से अपनी स्वतंत्रता त्याग कर एक शक्तिशाली संप्रभु को सौंपते हैं। इस अनुबंध के माध्यम से कानून और व्यवस्था स्थापित होती है।


आलोचना:


  • हॉब्स का मानव स्वभाव का चित्रण अत्यंत निराशावादी है।
  • वह संप्रभु को पूर्ण शक्ति सौंपते हैं जिससे निरंकुशता की आशंका रहती है।
  • उन्होंने स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों की उपेक्षा की है।



निष्कर्ष:

हॉब्स की मानव स्वभाव और प्राकृतिक अधिकारों की व्याख्या यद्यपि विवादास्पद है, परंतु उसने आधुनिक राज्य के निर्माण, अनुबंध सिद्धांत और कानून व्यवस्था की समझ को एक ठोस आधार दिया।





प्रश्न 52: सहमति, प्रतिरोध और सहनशीलता पर जॉन लॉक के विचारों पर चर्चा कीजिए।



जॉन लॉक (1632–1704) को आधुनिक उदारवाद का जनक माना जाता है। उन्होंने सामाजिक अनुबंध के आधार पर राज्य की वैधता, सहमति, प्रतिरोध और सहनशीलता के सिद्धांतों को विकसित किया।


1. सहमति (Consent):

लॉक के अनुसार, राज्य की वैधता जनता की सहमति पर आधारित होती है। कोई भी सरकार तभी वैध मानी जाती है जब वह नागरिकों की सहमति से बनी हो। यह सहमति व्यक्ति के कुछ प्राकृतिक अधिकारों को सरकार को सौंपने के बाद उत्पन्न होती है।


2. प्रतिरोध (Right to Resistance):

लॉक का मानना था कि यदि सरकार नागरिकों के जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति की रक्षा करने में विफल होती है, या निरंकुशता अपनाती है, तो जनता को सरकार के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार है। यह विचार 1688 की इंग्लिश क्रांति से प्रेरित था।


3. सहनशीलता (Toleration):

लॉक ने धार्मिक सहनशीलता का समर्थन किया। उनका मानना था कि राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी धार्मिक मान्यताओं का पालन करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।


निष्कर्ष:

लॉक के विचार आधुनिक लोकतंत्र, मानवाधिकार, और धर्मनिरपेक्षता के मूल सिद्धांतों के आधार बने हैं। उनका दर्शन राज्य को वैधता, उत्तरदायित्व और न्याय की कसौटी पर परखने की प्रेरणा देता है।





प्रश्न 53: नागरिक समाज की रूसो की आलोचना का परीक्षण कीजिए।



ज्यां जाक रूसो (1712–1778) ने नागरिक समाज की अवधारणा की कठोर आलोचना की। उन्होंने इसे सामाजिक असमानता और दासता का कारण बताया।


1. प्राकृतिक अवस्था बनाम नागरिक समाज:

रूसो के अनुसार, प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य स्वतंत्र, समान और नैतिक था। लेकिन जब संपत्ति का निजी स्वामित्व आया, तो वर्ग भेद और असमानता उत्पन्न हुई। इस परिवर्तन ने ‘नागरिक समाज’ को जन्म दिया।


2. संपत्ति की भूमिका:

रूसो मानते थे कि नागरिक समाज निजी संपत्ति की रक्षा के लिए स्थापित हुआ। इसने शक्तिशाली वर्गों को कमजोर वर्गों पर शासन करने की वैधता दी।


3. सामाजिक अनुबंध की आलोचना:

रूसो के अनुसार, परंपरागत सामाजिक अनुबंध कमजोरों को भ्रमित करने का उपकरण था। उन्होंने ‘सामान्य इच्छा’ (General Will) के सिद्धांत को प्रस्तुत किया, जो सच्चे लोकतांत्रिक अनुबंध की ओर संकेत करता है।


4. नैतिक पतन और दासता:

रूसो मानते थे कि नागरिक समाज में लोग कृत्रिम जरूरतों और दिखावे के पीछे दौड़ते हैं। इससे व्यक्ति का नैतिक पतन होता है और वह सामाजिक बंधनों की दासता में बंध जाता है।


निष्कर्ष:

रूसो की नागरिक समाज की आलोचना मानवीय स्वतंत्रता और समानता की चेतना का समर्थन करती है। उनके विचार क्रांतिकारी और आधुनिक लोकतांत्रिक सोच के प्रेरणा स्रोत बने।





प्रश्न 54: इमैनुएल कांट के शाश्वत शांति के विचार पर एक निबंध लिखिए।



इमैनुएल कांट (1724–1804) का ‘Perpetual Peace: A Philosophical Sketch’ (1795) एक अत्यंत प्रभावशाली राजनीतिक निबंध है जिसमें उन्होंने विश्व शांति की अवधारणा को प्रस्तुत किया।


1. शाश्वत शांति की संकल्पना:

कांट ने स्थायी वैश्विक शांति के लिए कुछ ठोस नियम प्रस्तावित किए। उनका विश्वास था कि यदि राज्य विशुद्ध नैतिकता और तर्क पर आधारित हों, तो युद्ध समाप्त किया जा सकता है।


2. प्रमुख प्रस्ताव:


  • कोई भी गुप्त संधि वैध नहीं होनी चाहिए।
  • स्वतंत्र राज्य गणराज्यात्मक प्रणाली को अपनाएं।
  • स्थायी सेना का उन्मूलन हो।
  • अन्य देशों में हस्तक्षेप वर्जित हो।



3. ‘विश्व नागरिकता’ की धारणा:

कांट का मानना था कि प्रत्येक मनुष्य को ‘विश्व नागरिक’ (Cosmopolitan) की तरह देखा जाना चाहिए, जिसकी गरिमा और अधिकार सार्वभौमिक हैं।


4. अंतरराष्ट्रीय कानून और संगठन:

कांट ने ऐसे वैश्विक संगठन की आवश्यकता बताई जो सभी राष्ट्रों को न्याय की एक साझा प्रणाली में बाँधे। यह विचार आज के संयुक्त राष्ट्र जैसे संस्थानों की नींव बना।


निष्कर्ष:

कांट की शाश्वत शांति की धारणा आज भी वैश्विक संबंधों, अंतरराष्ट्रीय कानून और मानवाधिकार की नीति निर्धारण में प्रासंगिक है। उनका दर्शन नैतिक विश्व व्यवस्था का सपना प्रस्तुत करता है।





प्रश्न 55: जेरेमी बेंथम के उपयोगितावादी सिद्धांत का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।



जेरेमी बेंथम (1748–1832) ने उपयोगितावाद (Utilitarianism) के सिद्धांत की स्थापना की, जिसका मूल मंत्र था – “अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम सुख” (Greatest happiness for greatest number)।


मुख्य विचार:

बेंथम के अनुसार किसी भी कार्य, नीति या कानून का मूल्यांकन उसके परिणामों द्वारा होना चाहिए – अर्थात वह कितने लोगों के लिए कितना सुख लाता है।


Utility Principle:

उन्होंने “hedonic calculus” का विचार दिया जिसके अनुसार सुख और दुःख को मापा जा सकता है – उसकी तीव्रता, अवधि, निश्चितता, निकटता आदि के आधार पर।


आलोचना:


  • यह सिद्धांत केवल परिणामों पर केंद्रित है, नैतिकता के इरादों की उपेक्षा करता है।
  • व्यक्तिगत अधिकारों और अल्पसंख्यकों की उपेक्षा हो सकती है।
  • सुख को मात्रात्मक रूप से मापना व्यावहारिक नहीं।



उपलब्धियाँ:


  • इस सिद्धांत ने कानूनी सुधारों और सार्वजनिक नीतियों में उपयोगिता के आधार पर न्याय की समझ को बढ़ावा दिया।
  • सामाजिक कल्याण और लोकतांत्रिक निर्णयों को तर्कसंगत बनाया।



निष्कर्ष:

बेंथम का उपयोगितावाद व्यावहारिक और समाजोपयोगी दृष्टिकोण प्रदान करता है, परंतु इसे केवल मूल्य निर्धारण का एकमात्र पैमाना नहीं माना जा सकता।





प्रश्न 56: टॉकविल के अनुसार राजनीति में धर्म की क्या भूमिका थी, व्याख्या कीजिए।



एलेक्सिस डी टॉकविल (1805–1859) ने अमेरिका के लोकतंत्र का अध्ययन करते हुए राजनीति में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर किया।


1. सामाजिक स्थायित्व का आधार:

टॉकविल मानते थे कि अमेरिका में लोकतंत्र की सफलता का एक कारण वहाँ की धार्मिक नैतिकता थी। धर्म ने नागरिकों में आत्मसंयम और उत्तरदायित्व की भावना उत्पन्न की।


2. धर्म और स्वतंत्रता का संबंध:

टॉकविल के अनुसार, धर्म व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थन करता है लेकिन उसे नैतिक सीमा भी प्रदान करता है। यह स्वतंत्रता को अराजकता में बदलने से रोकता है।


3. धर्मनिरपेक्ष सरकार, धार्मिक समाज:

टॉकविल ने जोर दिया कि राज्य को धर्म से अलग रहना चाहिए, लेकिन धर्म को समाज में नैतिक दिशा देने का कार्य करते रहना चाहिए।


4. लोकतंत्र में धर्म की भूमिका:

धर्म लोकतंत्र में जनता के नैतिक आचरण को सुनिश्चित करता है, जिससे राजनीतिक संस्थाएँ स्थायित्व प्राप्त करती हैं।


निष्कर्ष:

टॉकविल की दृष्टि में धर्म कोई आधिकारिक संस्था नहीं बल्कि सामाजिक नैतिकता की शक्ति है, जो लोकतांत्रिक समाज के मूल्यों को पुष्ट करती है।





प्रश्न 57: प्रतिनिधि सरकार पर जे.एस. मिल के विचारों पर चर्चा कीजिए।



जे.एस. मिल (1806–1873) ने अपनी पुस्तक “Representative Government” में प्रतिनिधिक लोकतंत्र को सरकार का सर्वश्रेष्ठ रूप माना।


1. प्रतिनिधि सरकार की आवश्यकता:

मिल के अनुसार, बड़ी आबादी वाले आधुनिक राज्यों में सीधे लोकतंत्र संभव नहीं है, अतः प्रतिनिधि प्रणाली आवश्यक है जो जनता के मतों के आधार पर काम करती है।


2. नागरिक भागीदारी:

मिल ने कहा कि लोकतंत्र का उद्देश्य केवल अच्छे प्रशासन का चयन नहीं है, बल्कि नागरिकों को नैतिक और बौद्धिक रूप से उन्नत बनाना भी है।


3. प्रतिनिधियों की जिम्मेदारी:

प्रतिनिधियों को जनता के हितों की रक्षा करनी चाहिए, परंतु उन्हें विशेषज्ञता के आधार पर निर्णय लेने की भी स्वतंत्रता होनी चाहिए।


4. आनुपातिक प्रतिनिधित्व:

मिल ने आनुपातिक प्रतिनिधित्व की वकालत की जिससे अल्पसंख्यकों को भी आवाज़ मिल सके।


निष्कर्ष:

जे.एस. मिल की प्रतिनिधि सरकार की अवधारणा आज भी आधुनिक लोकतंत्रों की संरचना में मार्गदर्शक सिद्ध होती है।





प्रश्न 58: कार्ल मार्क्स की क्रांति के सिद्धांत का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।



कार्ल मार्क्स (1818–1883) के क्रांति सिद्धांत का आधार था – वर्ग संघर्ष। उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था को असमानता और शोषण का स्रोत बताया।


1. ऐतिहासिक भौतिकवाद:

मार्क्स के अनुसार, इतिहास वर्ग संघर्षों की श्रृंखला है – दास बनाम स्वामी, सामंती बनाम किसान, और अंततः पूंजीपति बनाम मजदूर।


2. क्रांति की प्रक्रिया:

मजदूर वर्ग (proletariat) जब पूंजीवाद के अंतर्निहित शोषण को समझेगा, तब वह सशस्त्र क्रांति करेगा और समाजवादी राज्य की स्थापना होगी।


3. राज्य का अंत:

मार्क्स के अनुसार, क्रांति के बाद सर्वहारा तानाशाही की स्थापना होगी, जो धीरे-धीरे राज्य को समाप्त कर वर्गहीन समाज की ओर ले जाएगी।


आलोचना:


  • क्रांति की अपरिहार्यता पर संदेह किया गया है।
  • पूंजीवाद ने कुछ देशों में आत्मसुधार की प्रक्रिया से शोषण को कम किया।
  • हिंसा आधारित क्रांति आज के लोकतांत्रिक सिद्धांतों से मेल नहीं खाती।



निष्कर्ष:

मार्क्स की क्रांति की अवधारणा ऐतिहासिक चेतना, सामाजिक न्याय और शोषण की समझ को दिशा देती है, हालांकि उसका क्रियान्वयन समय और संदर्भ के अनुसार चुनौतीपूर्ण रहा है।


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